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________________ २४८] श्री अमितगति श्रावकाचार - दत्तप्रलापभ्रमशोकमूर्छाः, संतापयतः सकलं शरीरम ये दुनिवारां जनयंति तृष्णां, ज्वरा इबैते न सुखाय. मंति ॥६६॥ अर्थ दिया है प्रलाप कहिए वृथा वकवाद अर भ्रमक हिये औरका और जानना अर शोक अर अचेतनपना जिननें, बहुरि समस्त शरीरकौं संताप उपजावते अर दुनिवार तृष्णाकौं उपजावै हैं ऐसे ज्वरनिके समान जे भौग ते सुखके अर्थ नाहीं हैं ॥६६॥ . विश्राण्य दानं कुधियो यतिभ्यो, ये प्रर्थयंते विषयोपभोगम् , ते लांगलैगः खलु कांचनीय, विलिख्य किपाकवनं वपंति ॥६७॥ अर्थ-जे कुबुद्धि यतीनके अर्थ दान देकरि विषयभोगकौं चाहैं हैं ते पुरुष सुवर्णमयी हलनि करि पृथ्वीकौं जीत करि किपाकनिके वनकौं बोवें हैं। भावार्थ-किंपाकका फल खानेमैं तौ प्रिय लागै है अर पाछै प्राण हरै है तैसै विषय भी भोगते त्तौ नीके लागें हैं अर परिपाकमैं महादःख देय हैं, तातें यह दृष्टांत दिया है ॥६७॥ ... र भिन्दन्ति सूत्राय मणि महर्घ, काष्ठाय ते कल्पतरु लुनन्ति । । नावं च लोहाय विपाटयन्ते, भोगाय दानं ननु ये "ददन्ते ॥६॥ पर्ण-आचार्य तर्क करै हैं जो जे पुरुष अर्थ दान देय है ते डोराके अर्थ महामोल रत्नकौं फोड़े है, अर काष्ठके अर्थ कल्पवृक्षकौं काट हैं अर लोहके अर्थ जहाजकौं ताड़ हैं ॥ ६८॥... 'परैरशक्य दर्भितेन्द्रियाश्चा, श्चरन्ति धर्म विषयाथिनो ये। पाषाणमाधाय . गले... महान्तं, . विशन्ति ते तीरमलभ्यपारम् ॥६६॥ .... .
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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