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श्री अमितगति श्रावकाचार -
लक्ष्मी विधातुं सकलां समर्थ, सुदुर्लभं विश्वजनीनमेनं । परीक्ष्य गृहणंति विचारदक्षाः, सुवर्णवद्वंचनभीतचिताः ॥२६॥
अर्थ-समस्त लक्ष्मीके रचनेक समर्थ, अर महादुर्लभ, अर समस्तका हित उपजावनेवाला ऐसा जो धर्म ताहि विचार विर्षे प्रवीन अर ठिगायवे करि भयभीत हैं चित्त जिनके ऐसे पुरुष हैं ते सुवर्णकी ज्यों परीक्षा करि प्रहण करें हैं। ... भावार्थ-धर्म धर्म सब ही कहैं हैं परन्तु परीक्षाप्रधान हैं ते असाधारण लक्षणतें परखि ग्रहण करें हैं ॥२६॥ स्वर्गापवर्गामलसौख्यखानि, धर्म ग्रहीतुं परमो विवेकः । सदा विधेयो हृदये प्रविष्टबुंधस्तु तं रत्नमिवापदोषं ॥३०॥
अर्थ-स्वर्ग मोक्षके निर्मल सुखनिकी खानि जो धर्म ताहि ग्रहण करनेकौं पंडित जन करि हृदयविर्षे परम विवेक सदा करने योग्य है। बहुरि ज्ञानवान तिस धर्मकौं निर्दोष रत्नकी ज्यों ग्रहण करें हैं ॥३०॥ तं शब्दमात्रेण वदंति धर्म, विश्वेपि लोका न विचारयंते । स शब्दसाम्येऽपि विचित्रभेदविभिते क्षीरमिवार्चनीयं ॥३१॥
अर्थ-जिस धर्मकौं शब्दमात्र करि सब ही लोक कहैं हैं, अर विचार न करै हैं । बहुरि सो पूजनीक धर्म शब्दकी समानता होतें भी नाना प्रकारके भेदनि करि भेदरूए कीजिये हैं।
भावार्थ-जैसे आकका दूध गायका दूध नाममात्र तौ समान है, परन्तु गुणनि करि बड़ा भेद है, तैसैं धर्म धर्म तो सब कहैं हैं, परन्तु वीतरागभावरूप जिनधर्मविर्षे अर अन्य धर्म विषं बड़ा अन्तर है ॥३१॥ हिंसानृतस्तेयवरांगसंगग्रग्रंथग्रहा दत्तदुरंतदुःखाः। धर्मेषु येष्वत्र भवन्ति निद्यास्ते दूरतो बुद्धिमता विवाः ॥३२॥
अर्थ-इहां जिन धर्मनिविषं निंदनीक अर दिये हैं महादुःख जिननै ऐसे हिंसा झूठ चौरी मैथुन परिग्रहरूप पिशाच हैं ते धर्म बुद्विवान् करि दूरितें त्यागने योग्य है ॥३२॥