________________
प्रथम परिच्छेद
ये योजयन्ते विषयोपभोगे, मानुष्यमासाद्य दुरापमज्ञाः । निकृत्य कर्पू रवनं स्फुटं ते, कुर्वति वाटी विषपादपानां ॥२५॥
अर्थ-जो अज्ञानी दुःख करि पावने योग्य जो मनुष्यपना ताहि पाय करि विषयभोगनि विर्षे लगावै हैं, ते प्रगट कर्पू रके वनकू काटि करि विषवृक्षनिकी बाडी करें हैं ॥२५॥ गृहणंति धर्म विषयाकुला ये, न भँगुरे मंक्षु मनुष्यभावे । प्रदह्यमाने भवनेऽग्निना ते, निःसारयंते न धनानि नूनं ॥२६॥
अर्थ-जे विषयनि विर्षे आकुलित जन क्षणभंगुर जो मनुष्यभव ता विर्षे शीघ्र धर्मका ग्रहण न करें हैं, ते निश्चयतें अग्नि करि घर जलते सन्तै धननिकों न निकासें हैं ॥२६॥
सर्वेऽपि भावाः सुखकारिणोऽमो, भवंति धर्मेण विना न पुंसः। तिष्ठंति वृक्षाः फलपुष्पयुक्ताः,
कालं कियंतं खलु मूलहीनाः ॥२७॥ मर्थ-पुरुषकै ये सुखकारी सब ही पदार्थ धर्म विना न होय हैं, जैसे फल फूलनि करि सहित वृक्ष जड़रहित निश्चयकरि कितनें काल तिष्ठ ? किछू भी रहै नांही ॥२७॥
मोक्षावसानस्य सुखस्य पात्रं, भवन्ति भव्या भवभीरवो ये । भवन्ति भक्त्या जिननाथवृष्टं,
धर्म निरास्वादमदूषणं ते ॥२८॥ अर्थ –जे संसारतें भयभीत भव्यजीव जिननाथ करि उपदेश्या जो धर्म ताहि भक्तिसहित सेवें हैं, ते मोक्षपर्यंत सुखके भाजन होय हैं। कैसा है धर्म, नांही है इंद्रियजनित विषयनिका आस्वाद जाविर्षे, अर रागादि दूषन करि रहित ऐसे।
भावार्थ-जे पुरुष विषयरहित निर्दोष धर्म सेवै हैं ते चक्रवर्ती इन्द्र अहमिंद्र मोक्षपर्यंत सुख पाबैं हैं ॥२८॥