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________________ २३४ ] श्री अमितगति श्रावकाचार क्षेपे हैं ||१४|| बहुरि जो बहुत दुःखका कारण वादरा समान चंचल जो चित्त ताहि जिन वचन रूप पींजरे में बैठाय करि शीघ्र अपने वश करै है ॥१५॥ बहुरि जो जन्मजरामरणरूप रोगके हरणे में तत्पर ऐसी निर्दोष अर पूजित जो वचनरूप औषधि ताहि भव्यजीवनकौं देय है सो बहुधा मौनका धरनेवाला है । भावार्थ - मुख्यपने तौ मौन ही धार है अर कदाच बोल है, तौ सबका हितकारी वचन बोलै है । ऐसा जानना || १६ || बहुरि जो कर्मनिके क्षयके अर्थ कायोत्सर्ग कर है अर संसारतै भयभीत है अर जो करनेयोग्य न करने योग्यका ज्ञाता जिनसूत्रभाषित कार्यकौं करे है ॥१७॥ जा मुनिकै या प्रकार सम्यक् पंच महाव्रत पंच समिति तीन गुप्ति है सो उत्तम पात्र उत्तम गुणनिका भाजन जैनीनि करि कह्या है ॥१८॥ इन तेरह श्लोकनिमैं तेरह प्रकार चारित्रका वर्णन किया, जो इनकों धारे है सो उत्तम पात्र जानना, आगे इस ही उत्तम पात्रका विशेष स्वरूप कहैं हैं राग द्वेषो मोहो लोभः क्रोधो मदः स्मरो माया । ये परिहरति दूरं दिवाकरमिवांधकारचया ॥१६॥ अर्थ – जैसे सूर्यको अंधकारके समूह दूर त्यागें है तैसें जा मुनिकों राग द्वेष मोह क्रोध लोभ मान काम माया दूर परिहरें है । भावार्थ - जाकै रागादिकका अभाव भया ॥१६॥ दर्शनबोधचरित्रत्रितयं यस्यास्ति निर्मलं हृदये । श्रनंदितभव्यजनं विमुक्तिलक्ष्मीवशीकरणम् ॥२०॥ अर्थ- जाके 'हृदय विषं निर्मल दर्शनज्ञान चारित्रका त्रितय है, कैसा है दर्शन ज्ञानचारित्रका त्रितय आनंदक प्राप्त किये है भव्यजीव जानें अर मुक्तिलक्ष्मीका वश करनेवाला है ॥२०॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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