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दशम परिच्छेद
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यस्यानवद्यवृत्तेजंगममिव मंदिरं तपोलक्ष्भ्याः । कायक्लेशरुन वशीकृतं राजते गात्रम् ॥२१॥
अर्थ-बहुरि जिस मुनिका शरीर उग्र कायक्लेशनि करि कृश किया चालता तप लक्ष्मीका मन्दिर समान सोहै है, कैसा है सो मुनि पाप रहित है प्रवृत्ति जाकी ॥२१॥ यविजिता जगदीशा, विविधा विपदः सदा प्रपद्यन्ते । तानींद्रियाणि सद्यो, महीयसा येन जीयन्ते ॥२२॥
अर्थ-जिन इन्द्रियनि करि जीते जे इन्द्रादिक ते नाना प्रकार विपदानकौं सदा प्राप्त होय है ते इन्द्रिय जिस महात्मा करि तत्काल जीतिए है।
मावार्थ-वे साधू इन्द्रियनिके बस करनेवाले हैं ॥२२॥ पूजायामपमाने सौख्ये, दुःखे समागमे विगमे । क्षुभ्यति यस्य न चेतो, पात्रमसावुत्तमः साधुः ॥२३॥
अर्थ-पूजा विष तथा अपमानविर्षे, सुखविष अर दुःखविर्षे, लाभविर्षे अलाभविषै, जाका चित्त रागद्वेषकौं न प्राप्त हाय है सो यह साधु उत्तम पात्र है ॥२३॥
यस्य स्वपरविमागो न विद्यते निर्ममत्वचित्तस्य।. निर्वाधबोधदीपप्रकाशिताशेषतत्वस्य ॥२४॥
अर्थ-जिस मुनिक स्वपरका विभाग नाहीं है कैसा है सो मुनि पर वस्तूमैं ममता रहित है चित्त जाका अर बाधारहित ज्ञान दीपक करि प्रकाशे हैं समस्त पदार्थ जानें ।
भावार्थ-जिस मुनिकै मोहके अभावसे परद्रव्यमैं यह मेरा है यह पराया है ऐसा भेद नाहीं सबनिकौंज्ञेय मात्र करि जान है ॥२४॥
संसारवनकुठारं दातुं, कल्पद्रु मफलमभीषम् । यो धत्त निरवयं क्षमादिगुणसाधनं धर्मम् ॥२५॥ मर्थ-जो मुनि निर्दोष क्षमादि गुण है साधन जाके ऐसे