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________________ २३२ ] श्री अमितगति श्रावकाचार हृदयं विभूषयन्ती वाणी तापापहारिणीममलाम् । मुक्तानामिव मालां यो ब्र ते सूत्रसंवद्धाम् ॥११॥ षष्ट्वत्वारि शद्दोषापोढां यो विशुद्ध नवकोटीम् । मृष्टामृष्टसमानोभुक्ति विदधाति विजिताक्षः ॥१२॥ दव्यं विकृतिपुरः सरमंगिग्रामप्रपालनासक्तः । गृह्णाति यो विमुचति यत्नेन दयांगमाश्लिष्टः ॥१३॥ निजतुकेऽविरोधे दूरे गूढे विसंकटे क्षिपति । उच्चारप्रश्रवणश्लेष्माद्य यः शरीरमलम् ॥१४॥ जिनवचनपंजरस्थं विधाय बहुदुःखकारणं क्षिप्रम् । विदधाति यः स्ववश्यं मर्कटमिव चंचलं चित्तम ॥१५॥ यो वचनौषधमनघं जरामरणरोगहरणपरम । बहुशो मौनविधायी ददाति भव्यांगिनां महितम् ॥१६॥ कायोत्सर्गविधायी कर्मक्षयकारणाय भवभीतः । कृत्याकृत्यपरो यः कार्यं वितनाति सूत्रमतम् ॥१७॥ यस्येत्थं स्थेयस्य सम्यग्व्रतसमितिगुप्तयः संति । प्रोक्तः स पात्रमुत्तमगुणभाजनं जैनैः ॥१८॥ अर्थ-जोजीवस्थान गुणस्थान मार्गणास्थानके भेदनकौं विधानते जानकरि जीवनके समूहकी रक्षा करै है अर सूर्यकी ज्यौं पराये उपकारमें तत्पर है। भावार्थ-जो जैसे सूर्य अपेक्षारहित जोवनिकौं प्रकाश कर हैं तै अपेक्षा बिना जो परके उपकारमैं तत्पर है ॥५॥ बहरि जो हितरूप सत्यार्थ सुननेयोग्य हृदयकौं प्यारा गुण निकरि गरुवा ऐसे वचनकौं बोले है, कैसा है सो हितका करनेवाला अर परके मनकौं ताप उपजावनेतें भयभीत है ॥६॥ बहुरि जो परधनकौं निर्माल्यवत मानकरि दांतनका अन्तर शोधन मात्र तणादिक भी मन वचन काय
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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