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________________ अष्टम परिच्छेद [ २०३ भावार्थ--एकाग्र चित्त होयकै अर द्रव्यक्षेत्रादिक शोधन करि एकांत स्थानमैं तिष्ठकै प्रथम ईर्यापथ दंडक पढ़े, फेर गुरु आदिकनिकी वन्दना करकै पर्यंकासन तिष्ठिकै पूर्वोक्त वंदना मुद्रा रचिकै कायोत्सर्ग करै, फेर पूर्वोक्त जैनेश्वरी मुद्रा करिक पंचनमस्कारका ध्यान कर फेर तीर्थंकरनिका स्तोत्र पढ़के यथायोग्य बैठे, फेर पंचपरमेष्ठी निका स्तोत्र पढकै शक्तिसारू ध्यान करें फेर नमस्कार शिरोनति आवर्त्तपूर्वक आचार्य वन्दना कर फेर शक्तिसारू नियमकौं ग्रहण करि साधु वन्दना कर; या प्रकार यह आवश्यक तौ नित्य ही करै। बहुरि अष्ठमी चतुर्दशी आदि पर्व विषं तथा और भी निमित्त पाय जेसैं आगममैं कह्या तैसें आवश्यक करना योग्य है ।।६ ६. १०५।। येन केन स सम्पन्न, कालुष्यं दैवयोगतः । क्षमयित्वैव तं त्रेधा, कर्तव्याऽऽवश्यकक्रिया ॥१०६॥ अर्थ-कर्मयोगतै जिस किसी पुरुष करि परिणामनिमैं मलिनपना कलुषपना उपज्या होय ता पुरुषसौं मन वचन कायकरि क्षमा आदि आवश्यक क्रिया करनी योग्य है ।।१०६॥ कियां पक्षभवां मूढश्चतुर्मासभवां च यः । विधत्ते ऽक्षमपित्वासौ, न तस्याः फलमश्नुते ॥१०७।। अर्थ--जो मूढ़ विना क्षमा कराये पक्षजनित क्रियाकौं बहुरि चतुर्मासजनित क्रियाकौं करै है सो यहु ता क्रियाके फलकौं न पावै है। भावार्थ-पंदरह दिनमैं प्रतिक्रमणादि करिए सो पक्षकी क्रिया कहिए, चार महिनामै करिए सो चातुर्मासिक क्रिया कहिए सो इन क्रियानकौं जासैं कलुषता भई होय तासैं क्षमा कराये विन करै तो परिणामनिकी शल्यतें क्रियाके फलकौं न पावै ॥१०७॥ देवनराद्य : कृतमुपसर्ग, वन्दनकारी सहति समस्तम् । कम्पनमुक्तो गिरिरिव धीरो, दुष्कृतकर्मक्षपणमवेक्ष्य ॥१०८॥ अर्थ-वन्दना करनेवाला मनुष्य है सो पाप कर्मकी निर्जराकौं विचारिक देव मनुष्यादिकनि करि कर्या समस्त उपसर्गकौं सहे है, कैसी है? पर्वतकी ज्यों कम्परहित है धीर है ॥१०॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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