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________________ २०४] श्री अमितगति श्राकवाचार. आगे अधिकार संकोच है इत्थमदोषं सततमननं, निर्मलचित्तो रचयति नूनम् । यः कृतिकर्मामितगतिदृष्टं याति स नित्यं पद्मनदृष्टम् ॥१०६ ॥ " अर्थ -- जो निर्मलचित्त पुरुष या प्रकार निर्दोष न्यूनता रहित निरंतर कृतिकर्म कहिए आवश्यक क्रिया ताहि कर हैं सो नित्य अर देखने में न आवै ऐसा जो मोक्षपद ताहि प्राप्त होय है, कैसा है कृतिकर्म अमितगति कहिए अनंत है ज्ञान जाका ऐसा जो सर्वज्ञ देवता करि कह्या है; ऐसा जानना ॥ १०६ ॥ डिल्ल छन्द । रागद्वेष तजि सामायिक भजि, कीजे तीर्थंकर गुणगान । पंच परमगुरु चरण वन्दि, नित पूर्वदोषको करि अवसान || आगामी अत्याग देहसौं, ममताभाव निवारि सुजान । षट आवश्यक साधि जीव इम, लहै अमितगति पद निरवान || ऐसें श्री अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचार विषै अष्टम परिच्छेद समाप्त भया । नवम परिच्छेद दानं पूजा जिने, शीलमुपवाश्वतुविधः । श्रावकाणां मतो धर्मः संसारारण्यपावकः ॥ १॥ अर्थ- दान १ पूजा २ शील ३ उपवास ४ यहु संसारवनको अग्नि समान चार धर्म श्रावकनिका जिनदेवनिनैं कह्या है ।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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