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श्री अमितगति श्रावकाचारं
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क. त्वाजैनेश्वरीं मुद्रां, ध्यात्वा पंचनमस्क तिम् । उस्का तीर्थंकरस्तोत्रमुपविश्य यथोचितम् ॥ १०२ ॥ चैत्यभक्त समुच्चार्य, भूयः कृत्वा तनूत्सूतिम् । उका पंचगुरुस्तोत्रं कृत्वा ध्यानं यथाबलम् ॥१०३॥
विधाय वंदनां सूरेः कतिकर्मपुरः सराम् । गृहीत्वा नियमं राक्त्या, विधत्ते साधुवंदनाम् ॥१०४॥ आवश्यकमिदं प्रोक्त नित्यं व्रतविधायिनाम् । नैमित्तकं पुनः कार्यं यथागममतं द्रितैः ॥१०५॥
अर्थ – एकाग्र है मनकी वृत्ति जाकी अर करि है द्रव्यादिकनकी सोधना जानें सो एकांत स्थानपैं तिष्ठकरि कर्या है ईर्यापथका शोधन जानें ॥६॥
गुरु आदिकनिकी वन्दना करके पर्यंकासनपरि तिष्ठ्या वन्दना मुद्राकौं रचिकै सामान्यपर्ने कह्या है नमस्कार जानें ॥ १६०॥
ता उपरांत सामायिक स्तोत्रकौं भले प्रकार कहिकै छोड़ी है मुद्रा जानें सो पाठ पढकै जान्या है आवर्त्ती जानें ऐसा पुरुष सो कायोत्सर्गकौं करे है ॥१०१॥
बहुरि जैनश्वरी मुद्राकौं करिकै अर पंच नमस्कार मंत्रका ध्यान करकै अर तीर्थंकरनिका स्तोत्र कहिकै यथायोग्य बैठकरि ॥ १०२ ॥
चैत्य भक्तिका उच्चारन करि फेर कायोत्सर्ग करिकै बहुरि पंच गुरुनि स्तोत्र कहिकै बहुरि जैसा बल होय तैसा ध्यान करिकै ॥ १०३ ॥ बहुरि कृतिकर्म पूर्वक आचार्यकी वन्दनाक करिकैं फेर शक्ति माफिक नियमकौं ग्रहण करि साधु वन्दनाकौं करें ॥ १०४ ॥
यहु आवश्यक व्रत करनेवालेनकौं नित्य कहा । आलस्य रहित पुरुषनि करि नैमित्तिक कहिए पूर्व आदिका निमित्त पाया सो जैसा आगममैं का तैसा करना योग्य है ॥ १०५ ॥