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________________ षष्ठम परिच्छेद [ १४५ आगे देश विरतिक कहै हैंarrafsafe कृत्वा यो, नाक्रामति सदा पुनस्त्रधा । देशविरतिद्वितीय, गुणव्रतं तस्य जायेत ॥ ७८ ॥ अर्थ - बहुरि देशकी मर्यादाकौं भी करकै जो फेर मन वचन काय करि नाही उलंघँ है ताकै देशविरतिनामा दूसरा गुणव्रत होय है । भावार्थ- तिस करि भई दिशानिकी मर्यादा विषै भी ग्राम दुकान घर बगीचा गली इत्यादिक निकालके नियमरूप मर्यादा करनी सो देशव्रत जानना ॥ ७८ ॥ काष्ठेनैव हुताशं लाभेन, विवर्द्ध मानमतिमात्रम् । प्रति दिवस या लोभं, निषेधयति तस्य कः सदृशः ॥ ७६ ॥ अर्थ -- जैसे काष्ठकरि अग्नि सिवाय बढ़ता होय तैसे पदार्थनके लाभ करि तृष्णा बढ़ती होय है । बहुरि जो प्रतिदिन लोभकौं त्यागे है ताक समान और कहा है । ७९ ॥ आगैं अनर्थदण्ड विरतिनामा गुणव्रतकौं कहै हैंयोऽनर्थं पंचविध परिहरति, विवृद्धशुद्धधर्ममतिः । सोऽनर्थदण्डविरति गुणव्रतां नयति परिपूत्तिम् ॥ ८० ॥ अर्थ--विशेषपनें बढ़ती है शुद्ध धर्म विषै बुद्धि जाकी ऐसा जो पुरुष पांच प्रकार अनर्थकौं त्यागे है सो अनर्थदण्ड विरति नाम गुणव्रतकौं पूर्णताक प्राप्त कर है ॥ ८० ॥ आगे पांच अनर्थ पापके नाम हैं हैं , पंचानर्था दुष्टाध्यानं, पापोपदेशनाशक्तिः । हिंसोपकारि दानं प्रमादचरणं श्र तिर्दुष्टा ।। ८१ ॥ अर्थ -- दुष्ट ध्यान कहिए शिकार तथा काहूकी जीत काहूकी हार तथा संग्राम तथा परस्त्रीगमन तथा चौरी इत्यादिक का चिन्तवन करना । बहुरि चित्रामादिक विद्या अर व्यापार लिखना, खेती करना, चाकरी करना इत्यादि हिंसादिक आरम्भ के उपदेश विषै आशक्तिता सो पापोप
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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