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श्री अमितगति श्रावकाचार
भावार्थ - जीवकै तीन लोकके पदार्थन की तृष्णा है सो सब छूटती न जानि तृष्णा घटनेकौं पदार्थनिका परिमाण कराया है ॥ ७३ ॥ विध्यापयति महात्मा लोभं दावाग्निसन्निभं ज्वलितम् । भुवनं तापयमानं सन्तोषोद्गाढसलिलेन ॥ ७४ ॥
अर्थ -- महापुरुष है सो दावानल समान चलता जो लोभ ताहि संतोष रूप महाजल करि बुझावै है कैसा है लोभ जैसे अग्नि लोककौं सन्ताप उपजावै है ऐसा है ।। ७४ ।।
सर्वारंभालोके सम्पद्यते, परिग्रहनिमित्ताः ।
स्वल्पयते यः संगं स्वल्पयति सः सर्वमारंभम् ॥ ७५ ॥
अर्थ - लोकविषै सर्व हिंसादिक आरम्भ हैं ते परिग्रह के निमित्त होय है अथवा परिग्रहत होय है इस कारणतैं जो परिग्रहकों घटावे है सो सर्व आरंभकौं घटावै है ।। ७५ ।।
ऐसें परिग्रह परिमाण अणुव्रतका वर्णन किया। आगे दिग्विरति नाम गुणव्रतकौं कहै हैं
ककुवष्टकेऽपि कृत्वा मर्यादां, यो न लंघयति धन्यः । दिग्विरतिस्तस्य जिनैर्गुणव्रतं कथ्यते प्रथमम् ॥ ७६ ॥
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अर्थ - जो धन्य पुरुष दिशानके अष्टक विषै मर्यादाकौं करिकै नाही उलंघे है ताकै जिनदेवनि करि दिग्विरतिनामा गुणव्रत कहिए है । पूर्वादि आठौं दिशा तथा उपलक्षणतैं नीचे ऊपर ऐसे दशौं दिशानके प्रसिद्ध नदी पर्वतादिकनतें जो मर्यादा कर ताके इसतें परे मैं गमनादि नाही करूँगा सो प्रथम दिगविरतिनामा गुणव्रत जानना ॥ ७६ ॥
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सर्वारम्भनिवृत्त स्ततः परं तस्य जायते पूतम् । पापापायपटीयः, सुखकारि महाव्रतं पूर्णम् ॥ ७७ ॥
अर्थ - तिस दिग्विरतिधारी पुरुषकै तिस मर्यादतें परैं सर्व आरम्भ की निवृत्ति कहिए त्याग तातैं सुखकारी अर पापके नाश करने मैं प्रवीण ऐसा पूर्ण महाव्रत होय है ।। ७७ ।।