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षष्ठम परिच्छेद
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भावार्थ--मन्द कषायरूप चारित्रमोह के उदयतें अवशपर्ने व्यापार आरम्भ विष सो तो आरम्भजनित हिंसा कहिए, अर विना ही प्रयोजन चला करि आप ही तीव्र कषायरूप हिंसा करना सो अनारंभजनित हिंसा कहिए सो इनि दोऊ प्रकार हिंसानिका त्याग तो मुनीश्वरनिकै होय है, अर गृहस्थके शक्तिहीनपनाते निर्दोष व्यापारादि जनित हिंसाका त्याग न होय सकै है परन्तु परिणामनि विर्षे सर्व हिंसातें महा अरुचि है, निन्दा गर्हा आपकी करै हैं ऐसा जानना ॥७॥
शमिताद्यष्टकषायः प्रवर्तते यः परत्र सर्वत्र । निंदागर्हाविष्टः सः संयमासंयम धत्ते ॥८॥
अर्थ--उपसमाएँ हैं आदिके अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान रूप क्रोधादि अष्ट कषाय जानें अर सर्व ठिकानै निन्दा गर्दा युक्त जो प्रवर्ते है सो संयमासंयम जो देशव्रत ताहि धारै है ॥८॥
कामासूयामायामत्सरपैशून्यमदहीनः । धीरः प्रसन्नचित्ताः प्रियंवदो वत्सलः कुशलः ॥६॥ हेयादेयपटिष्टो गुरुचरणाराधनोद्यतमनीषः । जिनवचनतोयधौतस्वांतकलंको भवविभीरुः ॥१०॥ सम्यक्तरत्नभूषो मन्दीकृतसकलविषयकृतगृद्धिः । एकादशगुणवर्ती निगद्यते श्रावकः परमः ॥११॥
अर्थ--विषय निकी वांछा अदेखसका भाव मायाचार मत्सरता चुगलीखाना दीनपना जात्यादि मद इनकरि रहित होय अर प्रसन्नचित्त होय अर प्रिय वचन कहनेवाला होय धीर होय प्रीतियुक्त अर प्रवीण होय ॥६॥ ___बहुरि त्यागने योग्य ग्रहण करने योग्य विर्षे पंडित होय अर गुरु चरणनिके आराधने विष उद्यमरूप बुद्धियुक्त होय, अर जिनवचनरूप जल करि धोया है मनका कलंक जानें ऐसा होय, अर संसारतें भयभीत होय ॥१०॥
बहुरि सम्यक्तरूप रत्नके आभूषण करि सहित होय, अर मन्द करि है समस्त विषयनि करि लोलुपता जानैं ऐसा होय ।