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________________ १०४ ] श्री अमितगति श्रावकाचार किंकरीयति निरीक्ष्य पार्थिवं, पार्थिवीयति कुधीः स किंकरम् ॥३॥ अर्थ सो मदिरापानी मन करि विह्वल भया संता स्त्रीकौं मातावत् आचरै हैं अर माता कौ स्त्रीवत् आचरण करै है। बहुरि सो कुबुद्धि राजाकौं देखकरि चाकरवत आचरै है अर चाकरकौं राजावत आचरै है। भाव र्थ-मदिरापानी सर्व पदार्थनिकौं विपरीत देखै हैं ॥३॥ सर्वतोऽप्युपहसंति मानवा, वाससी व्यपहरन्ति तस्कराः । मूत्रयन्ति पतितस्य मण्डला, विस्तृते विवरकांक्षया मुखे ॥४॥ अर्थ-बहुरि मद्यपानी की सर्व ही तरफतै मनुष्य हास्य करें है अर चौर वस्त्र हरै है, बहुरि स्वान हैं ते पड़ेके विस्ताररूप मुखविर्षे छिद्रकी वांछा करि मूतै है ॥४॥ मंक्षु मर्छति विभेति कंपते, पूत्करोति रुदति प्रछर्दति । खिद्यते स्खलति विक्षते दिशो, रोदिति स्वपिति जक्षितीय॑ति ॥५॥ अर्थ-बहुरि मदिरापानी शीघ्र ही मूर्छित होय है, डरपै है, कांपै है, पूत्कार करै है, रोवै है, वमन करै है, खेदरूप होय है, गिर पड़े है, दिशानकू देखे है, रुदन करै है, सोवै है, जकड़ी लगिजाय है, ईर्ष्या करै है। भावार्थ-मदिराकरि नाना कुचेष्टा उपज है ॥५॥ ये भवन्ति विविधाः शरीरिणस्तत्र सूक्ष्मवपुसो रसांगिकाः । तेऽखिला झटिति यांति पंचतां, निंदितस्य सरकस्य पानतः ॥६॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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