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________________ चतुर्थ परिच्छेद [६३ त्रिलोकव्यापिनो वर्णा, व्यज्यंते व्यंजकैरिति । न समा भाषिणी भाषा, सर्वव्यक्तिप्रसंगतः ॥६२॥ अर्थ-तीन लोकविष व्यापक जे अक्षर हैं ते व्यंजक जे प्रगट करने वाले वाय तिनकरि प्रगट करिए है ऐसी बानी यथार्थ कहनेवाली नाही, जातें सर्व अक्षरनिकी व्यक्ति का प्रसंग आवै है । भावार्थ-त्रिलोकव्यापक जे सर्व वर्ण तिनकौं अभिव्यंजक वायु प्रगट करै है तौ जब वायु प्रगटै तब सर्व ही अक्षर सुनिवेमैं आए चाहिए सो बनै नाहीं, तातें तू कहै है सो मिथ्या है ॥६२॥ एकत्र भाविनः केचित्, व्यज्यंते नापरे कथम् । न दीपव्यज्यमानानां, घटादीनामयं नमः ॥६३॥ अर्थ-बहुरि एक ठिकाने वर्त्तते जे वर्ण ते केई प्रगट करिए है और प्रगट क्यौं न करिए हैं, जातें दीपक करि प्रगट होते जे घटादिक तिनकै यह क्रम नाहीं। भावार्थ-दीपक है सो एकस्थानवर्ती घट पट आदि सर्वहीकौं प्रकास है स नाहीं जो घटकौं प्रकासै पटकौं न प्रकासै तैमें वायु अक्षरनिकौ प्रकास है तौ सर्व ही कौं प्रकास, इहा तो कोई अक्षर सुनिए है कोई न सुनिए है। तातें वायु अक्षरनिकौं प्रकास है ऐसा कहना बनै नाहीं ॥६३॥ फेर कहै है,व्यंजकव्य तिरेकेण, निश्चीयन्ते घटादयः । स्पर्शप्रभृतिभिर्जातु, न वर्णाश्च कथंचन ॥६४॥ अर्थ-घटादि पदार्थ है ते स्पर्शादिकनि करि व्यंजक विन निश्चय कर है, बहुरि वर्ण हैं ते कदाचित् कोई प्रकार नाहां निश्चय कीजिए हैं। भावार्थ-घटादि पदार्थ हैं ते प्रगट करनेवाले विना ही स्पर्शादि करि निश्चय करिए है, अर सर्वव्यापी वर्ण नित्य हैं तिनका निश्चय कदाच कोई प्रकार भी न होय है। तातें -सर्वव्यापक नित्य अक्षरनकौं मानना मथ्यिा है ॥६४॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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