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________________ २] श्री अमितगति श्रावकाचार जानना सर्वज्ञविना औरकै उपदेशविषै कैसे सोहै, न सोहै है ॥ ५८ ॥ आवादी हैं हैं अपौरुषेयवेदतें सर्वका उपदेश है । ताका निषेध कर है; - अपौरुषेयतो युक्तमेतदागमतो न च । युक्त्या विचार्यमाणस्य सर्वथा तस्य हानित: ॥५६॥ अर्थ - बहुरि यह सर्वथा उपदेश है सो अपौरुषेय आगमतें युक्त नाहीं जातें युक्तिकरि विचारया भया तिस आगमकी सर्वथा हानि है । " भावार्थ - युक्ति करि अपौरुषेय आगम खंड्या जाय है ॥५६॥ सोही दिखावै है: ग्रामोऽकृत्रिमः कश्चिन कदाचन विद्यते । तस्य कृत्रिमतस्तस्माद्विशेषानुपलम्भतः ॥ ६०॥ अर्थ - काई आगम विना किया कदाच न होय हैं, जातें ताकै तिस करि भए आगमतें विशेषका अनुपलम्भ है । भावार्थ – जे शब्द वेदविषै हैं तेही अन्य कृत्रिम आगमविषै हैं दोऊनिमैं किछू भेद दीसँ नाहीं तातैं वेदकौं अकृत्रिम कहना मिथ्या है ॥६०॥ आगैं फेर कहै है— पश्यंतो जायमानं यत्तात्वादिक्रमयोगतः । वदत्यकृत्रिमं चेदमाश्चर्यं किमतः परम् ॥ ६१॥ , - तालु आदिके क्रमके योगतें उपजतेकौं देखते वेदकौं अकृत्रिम कहै है इसतें दूजा और कहा आश्चर्य है । भावार्थ - प्रत्यक्षक भी और प्रकार कहैं या सिवाय और आश्चर्य कहा ॥ ६१ ॥ आगे वादी कहै है, अक्षर तौ त्रिलोकव्यापी नित्य ही हैं परन्तु जब तिनकी प्रगट करनेवाली वायु प्रगटै है तब वर्ण प्रगट होय है । ताका आचार्य निषेध कर है
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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