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चतुर्थ परिच्छेद
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दिया है कि कोइकै किचित् कर्मके अभावतें किछ रागादिकका अभाव देखिए है तौ कोइकै सर्व कर्मके अभावतें सर्व रागकामी अभाव होयगा, ऐसे निश्चय किया है ।।५४।।
आगें सर्वज्ञपनेंका निश्चय करावै है;- प्रकर्षस्य प्रतिष्ठानं, ज्ञानं क्कापि प्रपद्यते ।
परिमाणमिवाकाशे, तारतम्योपलब्धितः ॥५५॥
अर्थ-ज्ञान है सो कोई आत्मा विर्षे प्रकर्ष जो वृद्धि ताकी प्रतिष्ठाकौं प्राप्त होय है जाते तारतम्यकी उपलब्धि है जैसैं आकाश विषं परिमाणकी वृद्धिकी हदकौं प्राप्त होय है तैसें ।
मावार्थ- जो तारतम्य पाइए हे सो वृद्धिकी सीमाकौं प्राप्त भया भी पाइए तातें अनुमान किया कि ज्ञानका अंश वधती वधती है तो ज्ञान अपनी वृद्धिकी हद्दकौं प्राप्त भया भी होयगा, जैसें परमाणु एक प्रदेशमात्रतें बंधती है ताका उत्कृष्टपना सर्व आकाश विर्षे है, यह दृष्टांत दिया है ऐसा जानना ॥५५॥
प्रकर्षावस्थितियंत्र, विश्वदृश्वा स गीयते । प्रणेता विश्वतत्त्वानां, कषिताशेषकल्मषः ॥५६॥
अर्थ-बहुरि जाविषं ज्ञानके बंधनेकी अवस्थिति है हद है सो विश्वदर्शी कहिये कैसा है सो समस्त तत्वनिका जाननेवाला है अर नाश किये हैं समस्त रागादिक जानें ऐसा है ॥५६॥
बोध्यमप्रतिबन्धस्य, बुध्यमानस्य न श्रमः । बोधस्य दहतो दह्य, पावकस्येव विद्यते ॥५७॥
अर्थ-जैसे दहने योग्य जो काष्ठादिक ताहि दहता जो अग्नि ताकै श्रम नाहीं है तैसें ज्ञेयको जानता जो आचरणरहित ज्ञान ताकै श्रम नाहीं है ॥५७॥ ....अनुपदेशसंवादि, लाभालाभादिवेदनम् । ___ समस्तज्ञमृतेऽन्यस्य, मिलिंगे शोभते कथम् ॥५॥ अर्थ-अंतरीक्ष दूरवर्ती पदार्थ अर लाभ अलाभ इत्यादिकका