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श्री अमितगति श्रावकाचार
आगमभी ताका सद्भाव न साधे हैं जातें आगम है सो तौ कर्मकांड हीका कथन कर है ताकै सर्वज्ञके जाननेका अयोग है अर अनादि आगम सादि पुरुषका कहनेवाला बनें नाहीं। बहुरि अनित्य आगम सर्वज्ञको साधै है सो तिस सर्वज्ञकरि कहे आगमके सर्वज्ञके निश्चय विना प्रमाणताका अनिश्चय है, बहुरि आगमकी प्रमाणता होते सर्वज्ञकी प्रमाणता होय अर सर्वज्ञकी प्रमाणता होते आगमकी प्रमाणता होय ऐसें इतरेतराश्रय दूषण भी आवै है, बहुरि सर्वज्ञप्रणीत अप्रमाणभूत जो आगम ताकौं सर्वज्ञ कहना अत्यन्त असम्भव है। बहुरि सर्वज्ञ समान अन्य पदार्थका ग्रहणका असम्भव है तातें उपमानप्रमाण भी सर्वज्ञका जनावनेवाला नाहीं। तातें पांचौं ही प्रमाणका विषय न होतें अभाव प्रमाणहीकी प्रवृत्ति है तातै ताका अभाव ही आवे है, ताकौं आचार्य कहै है ऐसे निषेध करना युक्त नाहीं जाते सर्वज्ञका साधक अनुमान विद्यमान है ॥२५॥
सो ही अनुमान दिखावै हैवीतरागोऽस्ति सर्वज्ञः, प्रमाणावाधितत्वतः ।
सर्वदा विदितः सद्भिः, सुखादिकमिव ध्रुवम् ॥५३॥
अर्थ-संतनि करि सर्वदा जान्या ऐसा वीतराग सर्वका जाननेवाला है, जात प्रमाण करि अबाधितपना है निश्चय करि सुखादिककी ज्यौं।
भावार्थ-जैसे सुखादिक स्वसंवदन गोचर निर्वाध सिद्ध है तैसे सर्वज्ञ वीतराग भी प्रमाण सिद्ध है ॥५३॥
सो ही कहै हैक्षीयते सर्वथा रागः, क्वापि कारणहानितः । ज्वलनो हीयते क्लिन्नः, काष्ठादीनां वियोगतः ॥५४॥
अर्थ-कोई आत्माविष कारणकी हानित सर्व प्रकार भी राग क्षीण होय है; जैसैं काष्ठादिकके वियोगते क्लेशरूप अग्नि क्षीण होय है।
भावार्थ-जैसैं काष्ठादिकके अभावतें अग्निका अभाव होय है तैसें कर्मनिके अभावते रागका अभाव होय है। इहां अतिशायक हेतु