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________________ चतुर्थ परिच्छेद [८६ समस्ताः पुरुषा येन, कालत्रितयवर्तिनः ।। निश्चिताः स नरः शक्तः, सर्वज्ञस्य निषेधने ॥५०॥ अर्थ-वो पूर्वोक्त वचन तिनका अयुक्त है जाते सर्व पदार्थ हैं विषय जाके ऐसे ज्ञान विना सवनिविर्षे ज्ञानका निषेध करनेकौं समर्थ नाही है, जानें कालत्रयवत्ती समस्त पुरुष निश्चय किये होय सो सर्वज्ञके करनेमैं समर्थ होय । भावार्थ-त्रिकालवर्ती समस्त पुरुषनिकौं जो जानता होय सो सर्वत्र सर्वज्ञका निषेध करै सो ऐसा जाननेवाला तू माने नाहीं, अर . मानै है तौ सोही सर्वज्ञा भया। तातै सर्वज्ञ वीतरागका निषेध करना मिथ्या है ॥५०॥ न चाभावप्राणेन, शक्यते स निषेधितुम् । सर्वज्ञऽतींद्रिये तस्य, प्रवृत्तिविगमत्वतः ॥५१॥ अर्थ-बहुरि सर्वज्ञ वीतराग है सो अभाव प्रमाणकरि भी निषेधनेक समर्थ न हजिए है, जाते अतींद्रिय जो सर्वज्ञ ता विर्षे तिस अभाव प्रमाणकी प्रवृत्तिका अभाव है। . भावार्थ-निषेधने योग्य अर न निषेधने योग्य वस्तुका आधार इन दोउनिका जाके ज्ञान होय सो आधारविर्षे आधेयकौं न देखि आधेयकौं निषेध अभावप्रमाणकरि करै है, जैसे कोऊ पृथ्वी अर घट दोऊनिकौं जान है सो पृथ्वी विर्षे घटकौं न देखि अभाव प्रमाणकरि घटका निषेध करै जो इहां पृथ्वीविर्षे घट नाहीं, सो सर्वज्ञ अतींद्रिय है ता विषं ऐसे अभाव प्रमाणकी प्रवृत्ति नाहीं, ऐसे अभाव प्रमाणकरि सर्वज्ञका निषेध करना मिथ्या है ॥५१॥ प्रमाणाभावतस्तस्य, न च युक्त निषेधनम् । अनुमानप्रमाणं हि साधकं तस्य विद्यते ॥५२॥ अर्थ-बहुरि प्रमाणके अभावतें तिस सर्वज्ञका निषेध योग्य नाही, जाते तिस सर्वज्ञका साधनेवाला अनुमान प्रमाण है । भावार्थ-सर्वज्ञाभाववादी कहै है - प्रत्यक्ष प्रमाणका विषय सर्वज्ञ नाहीं जातें इन्द्रियकरि सो जान्या जाय नाहीं। बहुरि अनुमानका भी विषय नाहीं जातै सर्वज्ञका. लिंग किछु दीखै नाहीं। बहुरि
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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