SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८] श्री अमितगति श्रावकाचार है अर भोक्ता है इस विशेषण करि सर्वथा अकर्ता वा अभोक्ता माननेवाले का निराकरण किया । बहुरि सूक्ष्म है ग्रहणमैं न आवै है इस विशेषण करि शरीर रूप आत्मा माननेवालेनिका निराकरण किया। बहुरि जाननवाला देखनेवाला है इस विशेषण करि ज्ञान दर्शन” भिन्न आत्मा माननेवालेनिका निराकरण किया ॥४६।। स्थिते प्रमाणतो जीवे, परेऽप्यार्थाः स्थिता यतः । क्रियमाणा ततो युक्ता, सप्ततत्वविचारणा ॥४७॥ अर्थ-जाते जीवकौं प्रमाणते सिद्ध होतसन्तें और भी पदार्थ हैं ते सिद्ध हैं ता” करी नई जो सप्ततत्वनिकी विचारणा सो युक्त है । भावार्थ--या प्रकार पूर्वोक्त प्रमाण” जीवकौं सिद्ध होत सन्तैं और भी पदार्थ सिद्ध होय हैं तातै जीवकै विकार हेतु अजीव है अर दोऊनके पर्याय आश्रवादि पंच तत्व और हैं ते सिद्ध भये । तब प्रथम वादीन कह्या था जो जीव ही नाही, तत्वका विचार करना निरर्थक है; ऐसे कहनेका निराकरण भया ॥४७॥ आगें सर्वज्ञका अभाव मानें हैं तिनका निराकरण करै हैं-तहां वादी अपना पक्ष कहै है परे वदंति सर्वज्ञो, वीतरागो न दृश्यते । किचिज्ज्ञत्वादशेषाणां, सर्वदा रागवत्त्वतः ॥४८॥ अर्थ और केई कहैं हैं सर्वज्ञ वीतराग नाहीं देखिए हैं जाते सबनिकै किंचित जानपना है अर सदाकाल रागवानपना है । भावार्थ-कोऊ सर्वज्ञ वीतराग नाहीं जाते सब जीव अल्पज्ञ वा सरागी देखिए है ॥४८॥ आगें ताका निषेध करै हैं :-- तदयुक्तं वचस्तेषां, ज्ञानं सर्वार्थगोचरम् । न विना शक्यते कर्तुं सर्वेषु ज्ञानवारणम् ॥४६॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy