________________
६४]
श्री अमितगति श्रावकाचार
व्यज्यन्ते व्यंजकैर्वर्णा, न जन्यन्ते पुन, वम् । इत्यत्र विद्यते काचिन्न प्रमा वेदवादिनः ॥६५॥
अर्थ-व्यंजक कहिये प्रगट करने वाले जे वायु तिनकरि वर्ण हैं ते प्रकट करिए हैं, बहुरि निश्चय करि उपजाइए नाहीं है ऐसी वेदवादीकी प्रमाणता कोई इहां नाहीं विद्यमान होय है ॥६५॥
आगें फेर कहै हैविना सर्वज्ञदेवेन, वेदार्थः केन कथ्यते । स्वयमेवेति नो वाच्यं, संवादित्वाप्रसंगतः ॥६६।
अर्थ-आचार्य कहैं है सर्वत्र देव विना वेदका अर्थ कौनकरि कहिए है । स्वयमेव कहिए हैं एसा कहना युक्त नाहीं जातें भले वक्तापनका अप्रसंग आवै है।
भावार्थ-पर्वज्ञ विना वेदका अर्थ कहना बनै नाहीं जातै सर्वज्ञ विना औरका ज्ञान प्रमाण नाहीं और कौं और कहि देय, अर वेद आप ही अर्थ कहै है तौ ताका कोई वक्ता न ठहरा, तब यह अर्थ है यह अर्थ नहीं है ऐसी कौन कहैं जाते वेद तौ जड़ है तातें स्वयमेव अर्थ कहना मिथ्या
न पारंपर्यतो ज्ञानं, सर्वज्ञानां प्रवर्तते । समस्तानामिवांधानां, मूलज्ञानं विना कृतम् ॥६७॥
अर्थ-बहरि वह कहै हैं जो असर्वज्ञनिका ज्ञान परम्परायतें सत्यार्थ प्रवत्तें है । ताकू आचार्य कहै है-जो सर्व असर्वज्ञनिका ज्ञान परम्परायतें न प्रवत्तें है, जैसे समस्त अन्धेनिका मूलज्ञान कह्या विना कार्य प्रवत्तै तैसैं ।
भावार्थ-बहत भी अन्धे पुरुष परम्परायतें चलैं तौभी मूलज्ञान बिना वांछित स्थान पावै नाहीं तैसैं परम्परायतें भी अल्पज्ञानीनिको वचन प्रमाण नाहीं ॥६७॥
कृत्रिमेष्वप्यनेकेषु, न कर्ता स्मर्यते यतः । कर्तृ स्मरणतो वेदो, युक्तो नाकृत्रिमस्ततः ॥६॥