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औषधि लेने से स्वस्थ होते हैं, फल मिलेगा ही इस भावना से आध्यात्म फल का विचार करना चाहिए । आत्मिक सुख के फल की इच्छा (कांक्षा) पुण्यानुबंधी पुण्य का कारण हैं । विश्वास हो तो दान करते समय बल मिलेगा, हाथ धूजेगें नहीं ।
* जो वस्तु जिसके पास होती है उसे लेने के लिए उसके पास जाया जाता हैं। गुरु भगवंत के समक्ष उनके गुणों की प्राप्ति हेतु जाना चाहिए ।
जगत में सर्व पापों से छूटने के लिए “जिन” व्यवस्था के सिवाय दूसरी कोई और व्यवस्था नहीं है । सांसारिक सुख भोगने पर घटते हैं, आध्यात्मिक सुख भोगने पर वृद्धि होती है ।
अनामिका के भव में श्रेयांसनाथ प्रभु को सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ था ।
* आराधना करते जाओ, समझते जाओ । ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्ष: में ही स्याद्वाद है ।
4. अमूढ़ दृष्टि :- मूढ़ता - मोह परिणाम । दृष्टि : धर्म में आस्था । श्रावक की अप्रमत अवस्था नहीं होती है इसलिए पूजा, दर्शन, सामायिक क्रियाएँ है । 'पुद्गल से न्यारो प्रभु मेरा' ऐसा हरिभद्रसूरि महाराज ने कहा है ।
5. उपबृंहणा :- संस्कृत शब्द है । अर्थ :- प्रशंसा, प्रोत्साहन ।
शक्ति होने पर भी गुणीजन की प्रशंसा न करें तो दोष लगता है ।
* मात्र धार्मिक स्थान में ही नहीं परंतु जहाँ-जहाँ धर्मप्रवृत्ति या गुण सम्पन्न जीव देखें वहाँ सद्भाव-बहुमान होता ही है । उपबृंहणा दर्शनाचार प्रत्येक क्षेत्र में आता है ।
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मन में शुभ भाव है इसका ज्ञान (तसल्ली) कैसे ? 'आचार' से इसकी तसल्ली की जा सकती है । याद रहे, शिथिलाचार या शिथिलाचारी के समर्थन से महादोष लगता है ।
'सुमति' श्रावक इस कारण से परमाधामी देव हुआ एवं अनंत संसार बढ़ाया। संघ कुछ अनिष्ट होता हो तो भी समर्थन नहीं देना । यह उपबृंहणा दर्शनाचार के पालन का ही रूप है ।
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