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दर्शनाचार
Overview-Synopsis * नाणंमि - दंसणंमि - पंचाचार सूत्र में दर्शनाचार' आदि आचार। * दर्शनाार आठ होते हैं - नि:शंक, निष्कांक्षा, निर्वितिगिच्छा, अमूढदृष्टि, उपबृहणा,
स्थिरिकरण, वात्यल्य, प्रभावना। * जीव सद्धर्म के बीज को आत्मा में रोपित करता है, तब से उसकी आत्मा उर्ध्वगामी ____ बनती है। भगवान एवं जिनाज्ञा में बहुमान (धर्म जितना मान अन्यत्र कहीं नहीं) * श्रावक के जीवन में दर्शनाचार आवश्यक है । दर्शनाचार रहित श्रावक 'अंध' एवं
देखे तो भी उल्टा दिखे ऐसा मिथ्यादृष्टि' कहा गया है। * दर्शन गुण यानि कि धर्म जैसा है वैसा ही दृष्टिगत होता है। 1. नि:शंक :- देव, गुरु, धर्म के प्रति नि:शंकता नहीं की यह अतिचार दूर करना
चाहिए। परमात्म तत्व में अविहड़ श्रद्धा । अभी तो गति-मति आलम्बन समस्त ही तत्वत्रयी है । वीतराग परमेश्वर तत्व उगमबिन्दु है । गुरु मार्गदर्शन प्रदान करते
हैं। धर्मतत्व से आत्मकल्याण की जा सकती है। 2. निष्कांक्षा :- 'मिथ्यात्व' में कांक्षा, कामना, ईच्छा नहीं होना चाहिए। समस्त धर्म
अहिंसा-सत्य समझाते हैं, पेकिंग अलग है । ऐसा मानने से कांक्षा अतिचार दोष लगता है । समान ही हो तो मानने में कोई समस्या नहीं । समानता में कमी है, असमानता अधिक है । वीतराग भगवान ने जहाँ समानता है उसी ही स्वीकार किया
है। नि:कांक्षा समर्पण मांगती है। इसमें दिमागी खेल प्रपंच नहीं चलता है। 3. निर्विचिकित्सा :- भव रोग के निवारण की औषधि याने चिकित्सा । उसके फल
में संदेह नहीं वह निर्विचिकित्सा । ‘लोगस्स' में आरुग्ग बोहिलाभं - भव आरोग्य
की बात कही गई है । दान देते हैं तब संपत्ति जाती है या महालाभ दिखता है । NUUUUUUUUUUUU 63 UUUUUUUUUUUUR