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®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®@GOOG * बाहर की संपत्ति तथा प्रकार के कर्म के विपाकोदयं से मिला वह प्रारब्ध है । जबकि
आत्मा को कर्मरहित करना वह हमारा पुरुषार्थ है। ऐसा मिलना प्रारब्ध है वह अक्रिया है, प्रयत्नपूर्वक ईच्छा प्रमाण का मिलना वह पुरुषार्थ है। प्रारब्ध ‘पर' वस्तु के संबंध से है वह पराधीन है, 'पर' वस्तु प्राप्त भी हो सकती है और नहीं भी । कर्म का उदय है वह प्रारब्ध है । भाव में परिवर्तन करना वह पुरुषार्थ है । क्रोध
के संयोगों में क्षमाभाव धारण करना वह पुरुषार्थ है। * कर्म का उदय है परन्तु भाव का उदय नहीं। * पांच समवाय कारणों को साधन बनाकर, साधना करके साध्य अर्थात् सिद्धि प्राप्त
करनी है। काल - जो वर्तमान है वह भूत बनता है एवं भविष्य वर्तमान बनकर आता है।
वर्तमान का उपयोग कर भूत, भविष्य को समाप्त कर कालातीत अर्थात्
अकाल बनने की साधना करनी है। स्वभाव - जीव को चिंतन, मनन, मंथन करके स्वभाव में आने की साधना करनी
चाहिए। कर्म - जीव को विवेकपूर्ण होकर सत्कर्म की ओर जाना चाहिए। उद्यम - जीव को शुभ में प्रगतिशील बनना चाहिए । प्रमाद छोड़कर अप्रमत्त
बनकर शुभ में जुड़कर शुद्ध होना चाहिए। नियति - जीव को रति-अरति, हर्ष-शोक से दूर रहकर समभाव में स्थिर रहने की
साधना करनी चाहिए। * काल, कर्म, उद्यम, नियति, आत्मा के स्वरुप नहीं परन्तु परमात्मा पद प्राप्ति के साधन
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