________________
व्याख्याएँ
1. स्वभाव : जिसका अस्तित्व त्रिकाल हो, जिसे बनाया नहीं जा सके, जिसे मिटाया नहीं जा सके, जो अनादि, अनंत, अनुत्पन्न, अविनाशी, स्वयंभू हो उसे स्वभाव कहा जाता है । जो जिस द्रव्य में जो लक्षण रूप भाव वह उसका स्वभाव ।
गति सहायकता
धर्मास्तिकाय का स्वभाव
स्थिति सहायकता
अधर्मास्तिकाय का स्वभाव
अवगाहन दायित्व
आकाशास्तिकाय का स्वभाव
-
पूरण गलन, ग्रहण गुण पुदग्लास्तिकाय का स्वभाव
दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य, उपयोग यह जीवास्तिकाय का स्वभाव है ।
-
१९७
कोई भी पदार्थ अस्तित्व रूप है उसका निश्चित स्वभाव एवं उसे अनुसरे उसका निश्चित कार्य भी है ।
* हम जो हैं वह हमारा अस्तित्व है एवं हम जैसे हैं वह हमारा स्वभाव है ।
2. काल : पाँचो आस्तिकाय में होने वाली अर्थक्रिया, जिसे काल कहा जाता है । जीवI अजीव के पर्याय का नाम ही काल । जहां पर्यायांतरता, रुपरुपांतरता, क्षेत्रांतरता, परिवर्तन है वहाँ काल है । संसारी छद्मस्थ जीवों में कर्ता-भोक्ता के भाव है वह काल है। द्रव्य की अवस्थांतर का अंतर वह काल है । जहाँ-जहाँ क्रमिक अवस्था है वहाँ काल है। इसलिए संसारी जीव द्रव्य को काल है, सिद्ध जीव द्रव्य को काल नहीं ।
3. कर्म : कर्मवर्गणा (पुद्गल) जब आत्म प्रदेश के साथ बद्ध संबंध में आए तब कर्मरुप परिणाम प्राप्त करते हैं । जीव ने आत्मप्रदेश में एकत्रित किए स्वयं की शुभाशुभ मानसिक, वाचिक एवं कायिक क्रिया वह कर्म, जो जीव एवं पुद्गल का मिश्रण है ।
4. पुरुषार्थ : जिससे फेरफार किया जा सकता है उसमें फेरफार (उद्यम ) करने की क्रिया को पुरुषार्थ कहते हैं । संज्ञा तथा बुद्धि के उपयोग से ईष्ट की प्राप्ति के लिए
I
59