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जहाँ कर्म की पहुँच नहीं है वहाँ उद्यम की ध्वजा फहरती है । कर्म का कार्य जीव को भवचक्र में घुमाना है । तब उद्यम-प्रयत्न-पुरुषार्थ कर्मों को ध्वस्त कर आत्मा को मुक्ति पूरी में ले जाता है । निरुधमी एवं मात्र कर्मवादी सफलता से वंचित रहते हैं। पुरुषार्थ को काल, स्वभाव की अपेक्षा रहता ही है परन्तु वह विजय दिलाने में सक्षम है।
पांच समवाय एवं चार साधना
- पं. पन्नालाल जगजीवनदास गांधी (1) स्वभाव, (2) काल, (3) कर्म, (4) पुरुषार्थ (5) नियति अथवा भवितव्यता अथवा प्रारब्ध। * कर्म बनने में पांच कारण अहम् हैं । वह उपरोक्त पांच समवाय हैं। * संसारी छद्मस्थ जीव उसके मूल शुद्धि स्वरुप में आए नहीं तब तक कार्य-कारण की ___परंपरा चालू रहती है। * पांच आस्तिकाय (प्रदेश समूह) है।
धर्मास्तिकाय - गति सहायक - स्वभाव घटता ही है। अधर्मास्तिकाय - स्थिति सहायक-स्वभाव घटता ही है। आकाशास्तिकाय - अवगाहना दायित्व-स्वभाव घटता ही है । कारण तीनों जड़,
अक्रिय, अरुपी है । परिवर्तन या परिभ्रमण नहीं। पुद्गलास्तिकाय - स्वभाव, काल, भवितव्यता तीनों घटते हैं । कारण है। जीवास्तिकाय - पाँचों समवाय घटते हैं । कारण कि छद्मस्थ जीवों के लिए पांच
समवाय, सिद्ध जीवों के लिए मात्र स्वभाव घटना है। कर्मरहित होने से कर्म नहीं घटते । अक्रिय, अरुचि, स्थिर, अकाल, होने
से काल, पुरुषार्थ एवं भवितव्यता घटते नहीं। * जीव जब अव्यवहार राशि में से व्यवहार राशि में आते हैं तब निगोद में से निकलते हैं,
तब भवितव्यता ही घटती है। 90GO®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®© 6850909GO®©®©®©®©®©®©®©®OGOGO