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* पेथड़शा 32 माईल घेरे वाली, 92 लाख गांवों की राजधानी माण्डवगढ़ के 500 मंत्रियों
के नायक थे । राजकार्य में बहुत व्यस्त थे । गुरु महाराज 5 माईल दूर हो तो भी वह वहां जाकर नियमित प्रतिक्रमण करते । पक्खि प्रतिक्रमण के लिए 10 माईल जाना पड़े तो भी जाते । गुरु निश्रा का महत्व समझ जाए तो समय का भोग अल्प बन जाता है गोमती चक्र - सुधर्मास्वामी के चरण की उपासना
गुरुजी के समक्ष चार दांडी की ठवणी पर पोटली होती है उसे स्थापनाजी कहते हैं । 'प्रतिष्ठा कल्प' में बताई गई विधि से पू. आ. भगवंत अढार अभिषेक करवाकर सर्वदा स्थापित स्थापनाजी की रचना करते हैं ।
पोटली में 'चंदगण' समुद्र के बेइन्द्रिय जीवों का मृत शरीर शंख सीप जैसा होता है । उसमें आवर्त-वर्तुल होने से उनका चयन किया गया है । स्थापनाजी में सुधर्मास्वामीजी के चरण में आवर्तों थे अत: उनके प्रतिकरूप में स्थापना की गई है । इसे गोमती चक्र भी कहा I जाता है, जो अनेक रूप में लाभदायी है ।
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कटासना : 'कटासन' भी कहता है । ऊन का होना चाहिए । ऊन शुभ तत्व को ग्रहण करता है । अशुभ तत्व को त्यागता है । तेजस - विद्युत शरीर की बिजली को, धरती में प्रवाहित बिजली खीच न ले, इस कारण उपयोगी है, अवरोधक बनता है, इससे तेजस शरीर सक्रिय रहता है ।
माप : बैठने वाले व्यक्ति के डेढ़ हाथ जितने माप का चोरस, सफेद ऊन का । मुँहपत्ती (4 गति का प्रतिक है )
माप : 1 वैंत 4 अंगुली । (बृहत्त् कल्पभाष्य), (यति दिनचर्या)
बंधी हुई किनार - मनुष्य गति का प्रतीक
बाकी की तीन खुली किनारे :- तिर्यंच, देव, नरक गति के प्रतिक सफेद रंग की (आचार दिनकर ग्रंथ की टीका में है ।)
ज्ञान के साधनों पर थूक न गिरे, आशातना से बचाती है। बोलो तब तुरंत मुँहपत्ती मुख के पास रखना चाहिए, बाकी मौन रहना । अगर बाँध कर रखे तो बोलने की प्रवृत्ति बार-बार होती है । मुँह की लार लगने से समुर्च्छिम जीवो की उत्पत्ति होती है ।
साधुवेश का प्रतीक है इसलिए हमेशा मुँहपत्ती उनके साथ ही होती है ।
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