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समझने जैसी सामायिक
- पू. आ. श्री हेमचंद्रसागर सूरि * सामायिक हो सके वहाँ तक उपाश्रय में ही करना चाहिए । संभव ना हो तो शुद्ध ___वातावरण मय एक खंड में घर पर कर सकते हैं (वातावरण शुद्धि) * सामायिक संभव हो सके तो गुरु की निश्रा में ही करना चाहिए । गुरु की उपस्थिति न हो
तो नवकार एवं पंचिद्रिय आलेखित हो ऐसे स्थापनाजी समक्ष कर सकते हैं। * गुरु निश्रा छोड़ने से कब, कैसा अनर्थ तथा गैरलाभ होता है इस बात को समझाता एक
दृष्टांत :
__ महातपस्विनी एवं अखंड चारित्र पालिका सुकुमालिका
कठोर जीवन, कठोर साधना करने के पश्चात् अपनी गुरुवर्या की आज्ञा का उल्लंघन किया एवं भवभ्रमण बढ़ा लिया । वैराग्य प्रबल था । आत्मोद्धार के लिए शरीर का सत्व निचोड़ने में तत्पर थी । वाचना में जिन कल्पी की आचार संहित श्रवण कर मन में गांठ बांध ली कि मैं जिनकल्पी जैसा उच्च कक्षा का चारित्र पालन करूँ।
गुरुणीजी ने समझाया । स्त्री देह में ऐसी साधना नही हो सकती और वह भी जंगल में ? श्मशान, खण्डहरों में शून्य ग्रह में तो संभव ही नहीं है । गुरुणीजी की बात नहीं मानी । सुकुमालिका का आग्रह चालू ही रहा । श्मशान में काउसग्ग करने जाती।
एक दिन सामने से दूर संगीत के सुर सुने । उस ओर दृष्टि की और एक दृश्य दृष्टिगत हुआ। एक स्त्री के साथ पाँच पुरुष क्रीड़ा कर रहे थे। यह देखकर मन चालित हुआ। अंतर में विचारा कि मुझे भी आने वाले भव में ऐसा सुख मिले । दूसरे भव में द्रौपदी बनी, पाँच पाण्डव पति बने । अपने हाथों से मोक्ष गँवाया। पाँचवे देवलोक में समय पसार कर रही है।
यह है गुरु अवज्ञा का दुष्ट परिणाम । GOOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGO90 54 GOOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGe