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तत्वज्ञान चिंतन
जहाँ विवेक ना हो परन्तु किंचित विचारों से धर्म करने की प्रेरणा मिले जब वह संज्ञा में चला गया है, ऐसा कहा जाता है । धर्म को वह निर्बल बनाता है ।
जीव जैसी लेश्या से मरता है वैसी ही लेश्या से उत्पन्न होता है । कर्मबंध के समय प्रदेश, स्थिति, रसबंध, स्वभाव का निर्णय होता है ।
रसबंध का आधार लेश्या पर है, 'स्थितिबंध' का आधार कषाय पर है ।
लेश्या की शुद्धि कषाय पर है । कषाय तीव्र - लेश्या अशुद्ध होती है (Intensity of Passion) कषाय मंद - लेश्या शुद्ध होती है । 6ठे गुणस्थान तक समस्त छ: लेश्याएँ होती हैं ।
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कृष्ण, नील, कापोत, पीत्त (तेजो), पद्म, शुक्ल ।
शुक्ल को छोड़कर पाँचों लेश्या की स्थिति, जघन्य, उत्कृष्ट, अंतमुहूर्त ।
7 से 13 गुण स्थानक तक शुक्ल लेश्या ही होती है ।
ज. स्थिति अंतमुहूर्त - उ. स्थिति करोड़ पूर्व उण (Less) 9 वर्ष
14 गुणस्थानक पर जीव अलेशी होता है ।
जो जीव सतत अशुभ लेश्याओं में रहता है वह यह तीव्र कक्षा की हो तो जीव की गति नरक, जो यह मंद कक्षा की हो तो, जीव की गति तिर्यंच
क्या करना ? राग द्वेष की परिणति के समय चतुःशरण स्वीकारने वाला साधक निमित्तो से दूर रहता है।
* जैन धर्म की समस्त क्रियाएँ चारित्र प्राप्ति हेतु ही होती है । लक्ष्य संयम का ही हो चाहिए।
* भवान्तर में जैन धर्म की प्राप्ति हो इस हेतु पंचाचार का पालन करो । तथा जो पंचाचार का पालन करें उसकी अनुमोदना करो ।
अनुबंध का मुख्य कारण मनोवृत्ति (Mentality) है । व्यवहारनय: मन-वचन-काया को अनुबंध का कारण मानते हैं । निश्चय नय : मन को अनुबंध का कारण मानते हैं । * कायरूपी सेना, वचन रूपी तोपों (नौकादल) एवं मन रूपी हृदय दल का मुकाबला करने के लिए काय-वचन -मन गुप्ति द्वारा तैयार होकर इन पर विजय प्राप्त करना चाहिए।
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