________________
UGGGGGGGGGGGGGGGGG * अपेक्षा कारण एवं निमित्तकारण तक पहुँचने में सहायभूत हमारे शुभ कर्म हैं। * निमित्तकारण रुप देव-गुरु-धर्म उपदान कारण में जाने के लिए प्रेरित करते हैं ।
अज्ञानी फल को चाटता है परंतु उसके मूल कारण को नहीं देखता है । वह श्वानवृत्ति है। * ज्ञानी फल में कारण को-मूल को देखता है एवं कारण अर्थात् कर्मबंध के समय उसके
कार्य याने फल का विचार करता है । यह सिंहवृत्ति है । अज्ञानी पुण्योदय में ही फल को चाटता है एवं पुण्य कर्मबंध के समय शुभभाव को भूल जाता है। भगवान ने जिसका निषेध कहा है उसके त्यागपूर्वक एवं जिसका विधान किया है उसके सेवनपूर्वक होने वाली क्रिया ही सामंजस्यपूर्वक की क्रिया कही है । इसके विपरीत क्रिया को असमंजस वृत्ति वाली क्रिया कही है । ऐसी वृत्ति से चाहे जितने जिन मंदिरों का निर्माण कराओ तो भी दर्शन शुद्धि नहीं होगी। कारण कि विधि प्रेतिषेध का सेवन किया
ही नहीं, शुभ भावों का स्पर्श हुआ ही नहीं। * दान देते समय भी दान में नहीं पर परिग्रह में रस अधिक होता है, उसका अनुबंध अशुभ
ही होता है । वह मनस्वी रूपधर्म कर रहा है। धर्म अध्यवसायों द्वारा समझना चाहिए। * रुचि एवं मनोवृत्ति
* आचरण में विनय विवेक भूलकर, राग द्वेष को महत्व देकर स्वयं के अहम् का पोषण
करता है वह कर्मबंध करके दुःखी होता है । जो संयम रखता है वह संतोषी जीव शुभ
कर्मबंध करता है। चत्तारि परमंगणि, दुल्हानि हुजंतुणो, माणुसुत्तं सुई सद्धा, संयमंमिअविरियं ।
भावार्थ - 1. मनुष्यत्व - मनुष्य का जन्म, 2. सुई - श्रुति - सद्धर्म का श्रवण, 3. सद्धा - धर्म में श्रद्धा, 4. संयम - विरति का स्वीकार करने का अपूर्व उल्लास । यह चार वस्तु सामान्य मनुष्य को दुर्लभ हैं।
90909090090909090509090900380900909090905090900909090