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धर्मतीर्थ ग्रंथ पू. युगभूषणविजयजी म.सा. संसार में तो नियम है कि स्नेह, स्नेह की अपेक्षा रखता है। राग उसका नाम है कि जिसमें अपेक्षा होती ही है । राग हुआ याने कि सामने से कुछ अभिलाषा होगी ही, ना हो तो राग होगा ही नहीं । समस्त राग में अपेक्षा होता ही है। अरे ! अंत में ऐसी भी इच्छा हो के वह सतत्
नि:स्वार्थ स्नेह में भी अपेक्षा होती ही है । मैं इसे चाहता हूँ और यह मुझे नहीं चाहे ऐसा राग संसार में होता नहीं । ऐसा राग धर्म में होता है । मात्र उचित कर्तव्य करके छूट जाने का भाव । धर्म के क्षेत्र में ही अपेक्षाशून्य भाव संभव है। संसार में एक पक्षी राग नहीं होता है। __ मरुदेवी माता राग के भ्रम में रहे । ऋषभदेव को निर्लेप देखकर (केवलज्ञान के पश्चात् उनके समवसरण में) उनका राग टूटा । मुरुदेवी माता ने प्रभु की वाणी भी सुनी नहीं और मोक्ष में गए।
पाँच लोकोत्तर भाव तीर्थों : गणधर (गीतार्थ गुरु), द्वादशांगी, चतुर्विध संघ जो इसको (द्वादशांगी का) अनुसरण करे, रत्नत्रयी एवं अनुबंधशुद्ध क्रिया कलाप (अनुष्ठान)। इन तीर्थों को लोकोत्तर कहा गया है, कारण कि पाँचों में ही जीव मात्र को संसार में से तारने की क्षमता है।
श्रेयांसकुमार सह भरत चक्रवर्ती, बाहुबली, ब्राह्मी, सुंदरी के साथ पूर्व भव का संबंध भगवान ऋषभदेव का था । श्रेयांसकुमार के साथ 9 भवों का संबंध था। अनुराग के कारण दोनों अनेक भवों में मिले । दोनों योग्य जीव थे इसलिए अहित का कारण नहीं बने । शुरुआत के भवों में रागादि वश काम-भोग की प्रवृत्ति भी रहती, आगे बढ़ते हुए वह प्रवृत्ति घटने लगी। नवमें भव में छः मित्र एकत्रित होते हैं, धर्म की बातें करते हैं, उदार भोगों का त्याग कर चारित्र स्वीकारते हैं।
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