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* अरिहंत हृदयस्थ हो जाए याने सब कुछ मिल जाए। जीव ने नरक - निगोद के कष्टों को अनिच्छा से अनंत बार भोगा है ।
* संतोष द्वारा शाश्वत सुख की प्राप्ति सरल बन जाती है ।
* दुष्कृत गर्हा - प्रायश्चित द्वारा अनुबंध की परम्परा समाप्त हो जाती है । जैसे ही आत्मा के अध्यावसाय उज्ज्वल होंगे वैसे ही पुण्यानुबंधी पुण्य की प्राप्ति होने में सरलता होगी । इसलिए प्रत्येक क्षण आत्मा को शुभ परिणामों में ही रखना चाहिए । इस हेतु किसी के लिए अशुभ चिंतन करना नहीं, अशुभ बोलना नहीं । दुःख अपमान हो वैसी प्रवृत्ति करना नहीं ।
अगर सद्गुरु का योग मिल जाए तो कषायों की कालिमा दूर हो जाती है ।
अर्थ काम एवं पर की चिंता अनिष्ट फल को देने वाली है, यह सत्य समझ प्राप्त होते ही आत्मा स्वयं के शुद्ध स्वरूप का चिंतन करने वाली बन जाती है । पश्चात् भी चिंता हो तो विचार करना कि जगत के कार्य पांच समवाय कारणों से होते हैं। जिसमें जो कारण मुख्य हों वैसा विचारने से चित्त का समाधान होता है ।
उदाहरण - धन चला गया तो विचारना कि वस्तु का पुण्य समाप्त हो गया, जिससे उस वस्तु का नाश हो गया । इसमें शोक संताप करने की आवश्यकता नहीं है । जो हमारा नहीं है वह हमारा हो नहीं सकता । आत्मा से भिन्न है - चिन्ता किसलिए ?
* कषायों की कालिमा को दूर करने की रामबाण औषधि है - महामंत्र नवकार का जाप । * जीवन में योगानुयोग 'निमित्त' मिलने से, शुभ एवं कल्याण मित्र रूप निमित्त से एक उल्लास प्रसारित होता है । मुक्ति-सिद्धि का मार्ग प्रज्ज्वलित होता है । चखला, मुहपत्ती, कटासना, आसन, मंदिर, आदि जड़ निमित्त है । देव-गुरु-धर्म आदि चेतन निमित्त है ! चारित्र स्वीकारा है ।
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