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महावीर वाणी भगवान महावीर कहते हैं :
प्रीत, हेत या मैत्री करना । राग-आसक्ति या स्वार्थ होगा तो राग में से द्वेष-तिरस्कार एवं उसमें से वैर का सर्जन होगा । वेर का विसर्जन करने के लिए भगवान महावीर ने विश्व पर मैत्रीभाव एवं वात्सल्य वेग का विस्तार किया। उनके देह का रक्त माता के दूध के समान हो गया । स्वयं अचल, अमल एवं अखंड प्रभुता के स्वामी बन गए । वात्सल्य प्रेम की पराकाष्ठा का फल अचिंत्य एवं अद्भुत है, उसकी प्रतीति जगत को करवाई है।
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