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सम्यक्त्व अर्थात् सत्य अथवा निर्मलता, दृष्टि की सच्चाई | आत्म कल्याण के प्रति तत्वदृष्टि, कल्याण दृष्टि के योग से धर्मांधता, मत-दुराग्रह, संकुचित सांप्रदायिकता दूर होती है। कषाययुक्त भावावेश शांत हो जाता है ।
सम्यक्त्व अथवा सम्यग् दर्शन :- अर्थात् सच्ची श्रद्धा, विवेकपूर्ण श्रद्धा, कर्तव्य, अकर्तव्य या हेय, ज्ञेय, उपादेय विषयक विवेक, दृष्टि का बल जो कल्याण साधन में निश्चय श्रद्धा, अटल विश्वास रुप है ।
सम्यग्दर्शन प्रकट होने पर किंचित ज्ञान, अल्प श्रुत ज्ञान, साधारण बुद्धि या परिमित पढ़ाई (पठन), सम्यग्ज्ञान बन जाता है । ज्ञान की सम्यकता, सम्यग्दर्शन पर अवलंबित है । ज्ञान से वस्तु का ज्ञान है, इसमें विवेक दृष्टि पवित्रता लाती है । ये दोनों के आधार पर चारित्र तैयार होता है ।
इसीलिए कहा है : - 'सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः '
ज्ञान या बुद्धि का विकास चाहे जितना महान हो किन्तु दृष्टि का महात्म्य उससे भी अधिक है, ‘दृष्टि जैसी सृष्टि' उचित कथन है ।
* जिन भगवान की वाणी :
1.
परलोक है, सुख दुःख शुभाशुभ कर्म के अधीन है ।
2.
संसार दु:ख रुप है, संसार का सुख क्षणिक है, सच्चा सुख मोक्ष स्वरुप में ही है । 3. मोक्ष प्राप्त करने जिनेन्द्र देव के कहे हुए 5 महाव्रतों को स्वीकार कर त्याग मय जीवन जीना चाहिए। इन तीनों में दृढ श्रद्धा ही सम्यक्त्व है ।
मिथ्यादृष्टि एवं अविरत सम्यग्दृष्टि के बीच का अंतर :- धार्मिक भावना का अभाव । सभी आत्माओं के साथ एकता का अनुभव करने की सद्वृत्ति का अभाव । अन्य के साथ स्वार्थ या बदला लेने की वृत्ति । अनुचित करने के बाद पश्चाताप या दर्द का अभाव । पाप को पाप न गिने, पुण्य पाप का भेद अग्राह्य है । स्वार्पण का सात्विक तेज नहीं होता ।
5. देश विरति : मर्यादित विरति - गृहस्थ धर्म व्रतों का नियम से पालन करना यह देश विरति है, अंशत: दृढ़ता के साथ पापयोग से विरत होना यह देश विरति ।
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