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अनुकंपा, कल्याण-साधना की स्पृहा (चाह) जैसे प्राथमिक गुण प्रकट हो, तब प्रथम गुण स्थान प्राप्त होता है । सद्गुण आने के बाद भी 'मिथ्यात्व' स्वरुप में ही पहिचान होती है । कारण - यथार्थ सम्यग्दर्शन नहीं होता । मंद मिथ्यात्व होने से मिथ्यात्व से ही पहिचान होती है।
जिन जीवों ने मित्रा दृष्टि को नहीं अपनाया वे पूर्णत: मिथ्यात्व-गुणस्थानक द्वारा पहिचाने जाते हैं, क्योंकि - गुण का उत्थान यहीं से होता है । 'मिथ्यात्व' गुण स्थानक दर्शन मोहनीय कर्म के आवरण के कारण भुक्तान करना पड़ते हैं।
2. सासादन, सास्वादन गूण स्थान :सद्धातु :- शिथिल करना, शिथिल हो जाना,
सादन :- शिथिल करने वाला, आ+सादन, अधिक शिथिल करने वाला । सम्यक्त्व से विचलित होने वाले जीवों की स्थिति - वह ‘सासादान' । वमन (कै) कराते सम्यक्त्व के आस्वादन से युक्त वह - सास्वादन ।
जब अनंतानबंधी - परम तीव्र कषायों के उदय होने पर सम्यक्त्व से विचलित होने का समय आता है । अज्ञान, मोह में या मिथ्यात्व में अनुरक्त होने रुप अवस्था उपशम' समकित से चलित होने वाले के लिए यह गुण स्थान है।
3. मिश्र गुण स्थान :आत्मा के विचित्र अध्यवसाय का नाम जो मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व का मिश्रण रुप
किसी को सत्य का दर्शन होता है और उसके पूर्व संस्कार से पीछे खींच लेते हैं । सत्य का दर्शन आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है । ये अवस्था झूले जैसी हो जाती है। यहाँ न तो अनंतानुबंधी कषाय होता है और ना ही पूर्ण विवेक की प्राप्ति - अर्थात् सन्मार्ग के विषय में श्रद्धा भी नहीं और अश्रद्धा भी नहीं, यह ‘डांवाडोल' की स्थिति होती है।
4. अविरत सम्यग्दृष्टि :- भव भ्रमण का समय निश्चित करने वाली आत्मा की अवस्था, आत्म विकास की मूल आधार भूमि ।
अविरत सम्यग्दृष्टि : बिना विरति की सम्यग्दृष्टि।
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