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पुण्य के उदय से मिली संपत्ति का मालिक 'औदयिक भाव है' ऐसा समझे तो जीव कर्म से लिप्त नहीं होता ।
धर्म अनुष्ठान भोग, सामग्री से, आरंभ-समारंभ से दूर होने के लिए है ।
दा. त. मंदिर में जाकर नियाणां करें तो आरंभ ही होता है । दान का भाव कर इच्छा करें तो आश्रव होता है; दान, मोह की वृत्ति छोड़ने का भाव करना है, मोह कम यानि जीव की जड़ता कम, त्याग के सुख में रस है ।
दा. त. व्यसनी जीव कहता है
भी काम आता है । मोहांध दशा है ।
- मुझे कंदमूल में रस है, संग्रह किया हुआ सामान
ज्ञान दशा रुपी दर्पण में देखने से जीवन के कचरे रुपी दोष दिखते हैं, गया तो गया :
प्राप्ति, संरक्षण एवं वियोग तीनों में दुःख, त्याग, वस्तु का नहीं ममत्व का करना है ।
गुणस्थान : आत्मा का क्रमिक विकास, आत्मा के गुणों का विकास, यथा योग्य क्रमश: श्रेणियों में होता है । प्रथम श्रेणि से ज्यादा दूसरी श्रेणि के जीव आगे बढ़े हुए होते हैं । उत्तरोत्तर इस प्रकार प्रथम गुण स्थान से चौथा एवं उत्तरोत्तर विकास अनुसार गुण स्थानक चढ़ते जाते हैं ।
आत्मबल मोक्ष महल में पहुँचने की सीढ़ी है ।
मुख्य 11वें गुण स्थान से, जो प्रमाद से सचेत हो गए, वे तिर गए । जितनी आत्मा की परिणति उतने गुण स्थान, प्रवाह के समान आत्मा की स्थितियाँ जुड़ी हुई हैं ।
1. मिथ्यात्व :- (कर्तव्य - अकर्तव्य के विषय में आत्मकल्याण के मार्ग में विवेक का अभाव) ।
सत्य दृष्टि न हो, अज्ञान, भ्रम, छोटी-सी चींटी से लगाकर बड़े पंडितों, तपस्वियों एवं राजा भी मिथ्यात्व की श्रेणि में हो सकते हैं ।
हरिभद्राचार्य के ‘योगदृष्टि समुच्चय' ग्रंथ में योग की आठ दृष्टियाँ बताई हैं - मित्रा, तारा, बला, दिप्ता, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, परा दृष्टि में चित्त की मृदुता, अद्वेषवृत्ति,
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