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________________ १९७ नोट की गड्डी गिनते समय भी उसके मन में यही रहता है कि - नवकार वाली कब गिनूं । उसको ‘आराधना' बहुत अच्छी लगती है । अनेक बार करने के बाद भी उसे बार-बार करने की इच्छा होती है । मन उसका उसी में रमता है। ऐसा है 'प्रियधर्मी' । जिसको जिसमें रस होता है उसको वही अच्छा लगता है । पैसे में रस होता है, उसको 50 किलो वजन भी उठाना पड़े हो तो बुरा नहीं लगता । ठंड की आधी रात को भी जाना है तो जाएगा । मूसलाधार बारिश में भी जायेगा, क्योंकि पैसे की कमाई हो रही है । लक्ष्य उसका 'पैसा' ही है । यदि 'धर्म' का लक्ष्य हो जाए, तो 'धर्म' ही अच्छा लगेगा । गुरु भगवंत को पूछते हैं "स्वामी शाता छेजी ?” तो क्या उत्तर मिलता है ? "देवगुरु- पसाय । " साधु जीवन जैसा 'निबंध' अवस्था संसार में कहीं नहीं है, इसलिए चक्रवर्ती राजा, धन्नाजी, शालीभद्रजी जैसे परम - श्रीमंत - श्रेष्ठियों ने संसार का त्याग किया आज भी कर रहे हैं। अभवी की धर्मसाधना इससे बिलकुल अलग है । वहाँ मोक्ष का लक्ष्य ही नहीं है । प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी आदि की चउभंगी बताई गई है, उसमें प्रियधर्मी भी हो और दृढ़धर्मी भी हो । ये तीसरा भांगा स्वीकार्य माना गया है । आगम की वांचन योग्यता के लिए । I प्रियधर्मी पुणिया श्रावक को राजा श्रेणिक 1 सामायिक के लिये पूरा मगध राज्य देने के लिए तैयार थे, जिस राज्य में धन्ना, शालिभद्र रहते थे। एक के पास चिंतमाणि रत्न था, तो दूसरे के यहां देव द्वारा नित्य धन की 99 पेटियाँ उतरती थी । जिस नगरी में 99 करोड़ नगद सौनेया का मालिक ऋषभदत्त सेठ रहता था, जहाँ 500-500 पत्नियों का मालिक सुबाहुकुमार रहता था । ऐसी समृद्धिशाली नगरी की कल्पना ही करने की रही - चूंकि मगध देश में ऐसी कई नगरियाँ थी । पुणिया श्रावक का उत्तर था “महाराज, ये संभव ही नहीं कि मगध के साम्राज्य के बदले मैं मेरी सामायिक की समृद्धि बेच सकूं ।' विवेकपूर्वक मना कर दिया गया । श्रेणिक राजा ने पूछा - 'तुम्हें क्या दिक्कत है ?' I उत्तर - ‘महाराज ! राज्यं नराकान्तम् सामायिकम् तु मोक्षान्तम्' राज्य का फल नरक है और सामायिक का फल मोक्ष है । मैं मोक्ष को बेचकर नरक की खरीदी कैसे करूं ?' 412
SR No.007276
Book TitleShrut Bhini Ankho Me Bijli Chamke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Doshi
PublisherVijay Doshi
Publication Year2017
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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