SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 435
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होने पर जीव को वैसे ही पुद्गल परिवर्तन भाव में भाग्यमय होता है । वैर का नियाणा बांध हुआ 'हो तो मैथुन समय समताशील, सदाचारी, धार्मिक, निरोगी माता -पा भी वैर युक्त भाव में आसक्त होकर मैथुन सेवी बनते हैं और जीव गर्भ में आता है । कारण कि वैरभाव युक्त बांधा नियाणा में जीव अनुरक्त होने से सात्विक शुक्र या रज संमिश्रण में जन्म नहीं ले सकता । दा. त. त्रिपुष्ट वासुदेव की आत्मा पूर्व में महावीर / नयसार की आत्मा है, वासुदेव के पिता पुरुष वेद के मद में होने से अपने पुत्री के साथ ही शादी करके संसार की माया रच डाली। उसी की कुक्षि में जन्म लिया और तामसिक पुद्गल परवर्तन में जन्म लेकर त्रिपृष्ट वासुदेव हुआ (महावीर प्रभु का 18वां भव) मृत्यु प्राप्त कर 7वीं नरक में गया । 16वें भव में बांधा हुआ नियाणा राग-द्वेष के भाव में होने से अशुभ कर्मों को नियाणापूर्वक भुक्तान किया। - जो खुराक खाते हैं उसका सब रक्त नहीं बनता, रक्त बनने के लिए जिस पुद्गल में जितनी क्षमता होगी उतना रक्त बनेगा। चाहे वो खुराक दूध, मलाई, मेवा, मिष्ठान्न क्यों न हो । बाकी की खुराक मल-‍ - मूत्र - -पसीना - कफ-नख-बाल आदि द्वारा बाहर आ जाता है । योग्य पुद्गलों से ही रस निर्माण होता है । जिसमें से कुछ ही अंश का रक्त बनता है । पुद्गल परावर्तन 7 प्रकार का है :- औदारिक, वैक्रिय, तैजस, कार्मण, मन, भाषा और श्वासोच्छ्वास परावर्त । सम्पूर्ण जीव राशि 7 परावर्त में आ जाती है । सूक्ष्म - बादरपर्याप्त-अपर्याप्त-एकेन्द्रिय जीव से लेकर संमूर्च्छिम या गर्भज पंचेन्द्रिय जीवों को औ. पुद्गल से औ. शरीर प्राप्त होता है, देव - नारक आदि जीवों के वैक्रिय शरीर, सिद्ध शिला में प्रवेश करने के एक समय पहले अनंत जीवों को तेजस और कार्मण शरीर होता है । वे तेजस एवं कार्मण पुद्गल परावर्त के कारण होते हैं । पुण्यकर्म के भाग्यशाली जीवों को ही मन, वचन और श्वासोच्छ्वास पुद्गलों की प्राप्ति होती है । गाय, हाथी, कुत्ता, घोड़ा आदि पंचेन्द्रियत्व होते हुए भी एक अक्षर मात्र नहीं बोल सकते । शुभाशुभ नियाणा बांधने के कारण राग द्वेष के सट्टा बाजार में सत्कर्म एवं पुण्य कर्मों का 402
SR No.007276
Book TitleShrut Bhini Ankho Me Bijli Chamke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Doshi
PublisherVijay Doshi
Publication Year2017
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy