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संशयरहित पदार्थ जिससे पहचाना जाता है उसे 'प्रमाण' कहते हैं । सम्यक्ज्ञान प्रमाण है, विपरीत ज्ञान अप्रमाण है । जैसे - पदार्थ जिस स्वरुप में हैं, उससे अन्य प्रकार का ज्ञान होना वह विपरीत ज्ञान हैं; जैसे -
आत्मा :- चैतन्य स्वरुप परिणामी, कर्ता, साक्षात् भोक्ता, स्वदेह परिमाण, प्रति शरीर भिन्न और अपौद्गलिक, अदृष्टवान है।
फिर भी विपरीत ज्ञान के कारण :नैयायिक दर्शन :- आत्मा को जड़ स्वरूप में मानता है, शरीर व्यापी नहीं मानता।
सांख्य दर्शन :- स्थिर रहने वाला (कूटस्थ्य नित्यवादी दर्शन) आत्मा को अपरिणामी मानता है, आत्मा को कर्ता तथा भोक्ता नहीं मानता।
अद्वेतवादि :- आत्मा को व्यापक मानते हैं। नैयायिक :- आत्मा को अदृष्ट एवं अपौद्गलिक नहीं मानता।
अल्प एवं दीर्घ आयुष्य का कारण अल्प (कम) एवं दीर्घ (लंबा) आयुष्य का कारण जीव कम जीने का कारणरूप 3 कारणों से कर्म बांधता है।
1. प्राणों को मारना :- प्राण 10 हैं। पांच इन्द्रिय+आयुष्य+मनोबल+वचनबल+ कायबल+श्वोच्छ्वास । कषाय और प्रमादवश हम जिस जीव की हिंसा कर रहे हैं, उसको पीड़ा हो रही है। वह हमको श्राप दिए बिना नहीं रह सकता । शत्रुभाव के कारण श्रापयुक्त शब्दों का प्रभाव द्वारा आतेभव में अल्प (कम) आयु वाले होते हैं। ___2. झूठ बोलकर :- झूठ बोलने वाले का हिंसा से घनिष्ठ संबंध है । उसकी भाव लेश्याएँ बुरी ही होती हैं । झूठ के माया एवं प्रपंच के साथ सीधा संबंध है । जातिमद, कुलमद, ज्ञानमद, संप्रदायमद, क्रियावाद, वितंडावाद अरिहंतपद के बाधक हैं। सत्य के बिना चारित्र की आराधना अधूरी है। ___3. श्रमण-ब्राह्मण को अप्रासुक और अनेषणीय खान-पान देना । अप्रासुक-सचित्त, अनेषणीय-अकल्पनीय, जिसके द्वारा साध्वाचार स्खलित होता है।
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