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खाए हुए सम्पूर्ण आहार का रक्त नहीं बनता किन्तु रक्त योग पुद्गल का ही रक्त बनता है, बाकी का आहार जो रस रुप बना है, वह है - विष्टा, मूत्र, पसीना, नख, बाल, नाक, आंख का मेल द्वारा बाहर निकल जाता है।
प्रमाद के 8 प्रकार = 5 प्रकार से क्रिया * प्रमाद :- कषाययुक्त भावना, विकथा करने का कुतुहल, आहार संज्ञानी की लालसा, स्वप्नशीलता तथा वैषयिक भाव।
प्रमाद 8 प्रकार का बताया गया है :
1. अज्ञान, 2. संशय 3. मिथ्याज्ञान, 4. राग, 5. द्वेष, 6. मतिभ्रंश, 7. धर्म में अनादर, 8. योग एवं दुर्ध्यान।
* 5 प्रकार क्रिया जो की जाती है :
1. कायिकी:- जीव वध करने के लिए शरीर संबंधी हलचल, गमनागमन आदि। जीवन में राग-द्वेष-मोह-कुतुहल-अंनतानुबंधी क्रोध मान-माया-लोभ और अज्ञान का जोर दबदबा रहता है, तब पराघात करता है।
2. अधिकरणिकी :- जिसके द्वारा जीव नीच गति की ओर जाता है वह अधिकरण। पराघात के लिए तीर-बरछी-तलवार-लकड़ी-छुरी । जीवों को फंसाने के खड्डा-जाल आदि द्वारा होती क्रिया।
3. प्राद्वेषिकी:-द्वेषमय जीव मारना दृष्टभाव, घृणाभाव करना। 4. परितापनिकी :- जीव को परिताप (पीड़ा) करें। 5. प्राणातिपातिकी :- जीवों के प्राण हरण की क्रिया।
कांक्षा मोहनीय कर्म कांक्षा मोहनीय कर्म उदय होने पर जीव मात्र को जिनेश्वर देव के वचनों के प्रति देश से या सर्व से शंका उत्पन्न होती है। दूसरे दर्शन ग्रहण करने की इच्छा होती है। धर्म अनुष्ठान द्वारा फल प्राप्ति में संदेह होता है।
गीतार्थ गुरुओं के समागम में आकर शंका आदि दोषों को टालना चाहिए ।
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