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________________ ®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®OGOGOG 7. संक्रमण (आवापगमन):- एक प्रकार के कर्म पुदगलों की स्थिति आदि का अन्य प्रकार के कर्म पुद्गलों की स्थिति आदि में परिगमन होना वह संक्रमण कहलाता है । सजातीय प्रकृति में ही संक्रमण होता है। 8. उपशमन (तन) :- कर्म कि जिस अवस्था में उदय या उदीरणा का संभव नहीं उस अवस्था को उपशमन कहते हैं, इस अवस्था में उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण हो सकता है। 9. निधत्ति :- जिसमें उदीरणा एवं संक्रमण का सर्वथा अभाव हो वह अवस्था । उदवर्तना और अपवर्तना हो सकती है। 10. निकाचना (नियति) :- जिसमें उवर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा इन चारों अवस्थाओं का संभव नहीं वह अवस्था । जिस रूप में कर्म बंधाया उसी रूप में अनिवार्यत: भोगना पड़ता है। 11. अबाध (अनदय):- कर्म बंध होने के बाद निर्धारित समय तक किसी भी प्रकार का कर्म फल न देना यह कर्म की अबाध अवस्था है, कर्म के इस समय को अबाधकाल कहते हैं। (अनुदय काल) * अपवाद :- आयु कर्म की 4 प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता। दर्शन मोहनीय का चरित्र मोहनीय में संक्रमण नहीं होता। दर्शन की घातक, चारित्र की घातक। दर्शन मोहनीय का तीन उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता। कर्म स्वयं की स्थिति बंध के अनुसार उदय में आते हैं और फल देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं, इसका नाम निर्जरा है, जिस कर्म की जितनी स्थिति में बंध हुआ है उतनी ही अवधि तक क्रमश: उदय में आते हैं। कर्म की पराकाष्ठा का उदय निगोद में है, उसके बाद एकेन्द्रिय में है। कर्मों का प्रदेश :- जीव स्वयं की कायिक आदि क्रियाओं के द्वारा, जितने कर्म प्रदेशों (कर्म परमाणु) का ग्रहण करता है, उतने कर्म प्रदेश विविध प्रकार के कर्मों में विभक्त होकर आत्मा के साथ बद्ध हो जाते हैं। 50505050505050505050505000389900900505050505050090050
SR No.007276
Book TitleShrut Bhini Ankho Me Bijli Chamke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Doshi
PublisherVijay Doshi
Publication Year2017
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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