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* शुभ ध्यान/शुद्ध ध्यान रूपी अग्नि से कर्म रूपी ईंधन समूह को जलाकर राख किया जा सकता है ।
* जीवात्मा जन्म के प्रथम समय से ही स्वयं के आयुष्य कर्म के दलों का दर्द भोग रहा है । कोई 70 वर्ष में मृत्यु प्राप्त करता है परन्तु आयुष्य कर्म के सर्व दल को एक साथ वर्ष में नहीं भोगा जाता, प्रतिक्षण आयुष्य कर्म क्षय होता रहता है ।
* पराधीनता के कारण बिना इच्छा के भूख-प्यास सहन करता है । ब्रह्मचर्य पालन करता है, क्योंकि अनुकूल संयोग नहीं मिला हाडमारी आदि द्वारा बिना इच्छा से तकलीफ सहता है । इसको अकाम निर्जरा के कारण कर्म क्षय हुआ कहा जाता है ।
* पराधीनता होने पर भी प्रत्याख्यान, गुरु उपदेश आदि श्रद्धा से और इच्छापूर्वक सहन करने से सकाम निर्जरा द्वारा कर्म क्षय होता है ।
कर्म की विविध अवस्थाएँ
कर्म साहित्य एवं आगमिक प्रकरणों से
1. बंध - 4 प्रकार से - प्रकृति, स्थिति, प्रदेश, अनुभाग (रसबंध )
2. सत्ता (संचित) :- कर्म का क्षय हो तब तक आत्मा के साथ चिपके रहें वह अवस्था, फल दिए बिना विद्यमान पड़े रहते हैं ।
3. उदय (प्रारब्ध) :- फल देने की अवस्था का नाम उदय, उदय होने के बाद फल देकर कर्म निजरी, क्षय प्राप्त होते हैं
4. उदीरणा :- नियम समय से पूर्व उदय में आने वाली अवस्था, जिस कर्म का उदय चल रहा होता है, उसकी सामान्यतः उदीरणा ।
5. उदवर्तना (उत्कर्षण) :- बद्ध कर्म की स्थिति और रस में अध्यवसाय, विशेष के कारण वृद्धि होना ।
6. अपवर्तना (अपकर्षण) :- मुख्य कारण (अध्यवसाय) द्वारा स्थिति और रस में कमी होना ।
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