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कर्म आदि भगवती सूत्र सार संग्रह - लेखक - स्व. पू. विद्याविजयजी म. कर्मों का प्रवाह निरंतर चालू रहता है, बंधे हुए कर्म स्वयं की स्थितियों का क्षय होते ही प्रवाह चालू, उसका प्रारंभ हो जाता है।
उदीरणा का अर्थ :- भविष्य में दीर्घ समय से उदय में आने वाले कर्म दल सद्ध्यान, स्वाध्याय तथा सात्विक तपस्या के बल से आत्मा के विशिष्ट अध्यवसाय को खींचकर, उदयावलिका में प्रवेश कराने की आत्मा की विशेष शक्ति उदीरणा है।
अशुभम्जी :- अशुभ/अशुद्ध विचारों में हर समय कर्मदल को आत्मा के प्रदेशों में इकट्ठा करता है, कर्म उपार्जन करता है। ___ शुभम्जी :- सम्यग्दर्शन, अष्ट प्रवचन माता के पालन द्वारा राग-द्वेष, विकथा, प्रमाद से दूर रहता है, प्रतिक्षण परमात्मा के ध्यान में लीन रहता है, शुभ/शुद्ध विचारों में दीर्घकाल से उदय में आने वाले कर्म क्षय करते हैं । अत: बांधे हुए कर्म का उदय दो प्रकार से होता है :
1. कर्म स्वयं की स्थिति पूर्ण होने पर उदय में आते हैं।
2. अनिकाचित कर्म उदीरणा से कर्मों के फल भोगे बिना ही कर्म प्रदेशों को क्षय कर देता है, आत्म प्रदेश से निकलने का, अलग होने का प्रारंभ हो जाता है।
अप्रमत अवस्था आत्मा में अप्रतिम शक्ति प्रकट करती है, दीर्घकाल के कर्मों को कम स्थिति (जल्दी क्षय होने) वाले कर सकती है।
अशुभ कर्मों का, तीव्र रस, पश्चाताप, प्रायश्चित, दुष्कृत्यों की पुन:पुन: आलोचना द्वारा मंद रस वाला कर सकता है । इसको अपवर्तना कहते हैं । जो हमेशा अशुभ/अशुद्ध भाव-भाते रहते हैं तो उदवर्तना करण होता है, मंद रस तीव्र बन जाता है।
तात्पर्य :- शुभ/शुद्ध भावना में रहना सीखो।
* बांधे हुए अशुभ कर्मों का रसमंद किया जा सकता है, यह भावना तीव्र हो तो अशुभ कर्मों के मूल को भी काटा (नष्ट) किया जा सकता है।
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