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गोचरी में पानी ना मिला, पानी मिला और भोजन न मिला हो, फिर भी अदीन, प्रसन्न चित्त, कषाय मुक्त, विषाद रहित, उपशम भाव में समाधिभाव रखकर स्थिर रहते । संयम निर्वाह हेतु ही आहार लेते थे।
प्रखर तपस्वी आंतर एवं बाह्य तप की उत्कृष्ट साधना से आत्मा प्रतिदिन तेजस्वी बनते गये । शरीर कृश, बाहर से एक-एक अंग सूखा हुआ पश्चात् मुख का तेज अग्नि के समान दैदिप्यमान । मांस एवं रक्त मानों हो ही नहीं । मात्र अस्थि, चमड़ी, नसें दिखती । ऐसी तपस्या का वर्णन साहित्य में कम ही अध्ययन करने को मिलता है।
घोर तेजस्वी अणगार के छाती की अस्थियाँ मानों गंगा की लहरों के समान अलगअलग प्रतीत होती थी । करोड़ के मणके मानो रुद्राक्ष की माला के समान, भुजाएं सुखे हुए सर्प के समान हाथ घोड़े की ठीली लगाम की तरह लटक गए थे। शरीर इतना खत्म हो गया था कि धन्ना अगणार चलते तब अस्थियाँ परस्पर टकराने के कारण कोयले से भरी गाड़ी की तरह आवाज करती थी।
शरीर था पश्चात् भी अशरीर जैसे बन गए थे। फिर भी आत्मा, तप के प्रखर तेज से अत्यन्त तेजस्वी बन गई थी । ऐसे तपोधनी अणगार की स्वयं भगवान महावीर ने उनके गौतम इन्द्रभूति प्रमुख 14,000 श्रमणों में धन्य अणगार को महादुष्कारक, महानिर्जराकारक कहकर सम्बोधित सम्मानित करते थे।
आठ माह की अजोड़ तपस्या कर एवं एक माह की अंतिम साधना के बाद सर्वार्थ सिद्ध विमान में धन्ना अणगार उत्पन्न हुए हैं । वहां 33 सागरोपम स्थिति पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर वहां से सिद्ध बनेंगे।
धन्य हो धन्ना अणगार को जैनम् जयति शासनम् ॥
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