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व्यवहार सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के पश्चात् निश्चय से प्राप्त करना है । सुदेव, सुगुरु, धर्म को भगवान, गुरु, धर्म के रुप में स्वीकारना वह व्यवहार से सम्यग्दर्शन है । प्रभु के वचन पर अकाट्य श्रद्धा कहीं भी शंका का नाम निशान नहीं । देव-गुरु-धर्म के प्रति बहुमान । सच्चे हैं वीतराग, सच्ची है वाणी, आधार है आज्ञा, बाकी धूलधाणी ।
* पू. आ. श्री आर्यरक्षित सूरीश्वरजी महाराज का जीवन वृतांत :
ब्राह्मण कुल में जन्म, दशपुर नगर में रहता उनका पूरा कुटुम्ब वैदिक धर्म में मानता था । उनकी माता ‘रुद्रसोमा' जिनमत की अनुयायी एवं परम श्राविका थी ।
'हितोपदेश ग्रंथ' में माता रुद्रसोमा के विषय में :
रुद्रसोमा विशिष्ट शुभ कर्मोदय परिणति से पूर्व से ही जीव - अजीवादि पदार्थ को जानने वाली, पुण्य-पाप का ज्ञान प्राप्त करने वाली, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध एवं मोक्षादि तत्वों का विचार करने में विशारद थी । निर्ग्रथ प्रवचन के विषय में सम्यक् प्रकार से अर्थ को प्राप्त करने वाली, अर्थ को ग्रहण करने वाली । अस्थि-मज्जा में धर्मानुराग के रंग में रंगी हुई थी । मोक्षसुख की अभिलाषा में समय व्यतीत करती थी । पिता सोमदेव ने लघु वय में ही आर्यरक्षित को काशी अध्ययन हेतु भेजा । अध्ययन - स्वाध्याय कर 14 विद्या के पारंगत बनकर युवान वय में अपने नगर में पुन: आए समग्र नगर में स्वागत हुआ । राजा द्वारा राज्यसभा में सम्मान हुआ ।
आर्यरक्षित ने स्वयं की माता को राज्यसभा में नहीं देखा । माता के प्रति उनका वात्सल्य अनुपम था । पूरा नगर आया मेरी माँ क्यों नहीं आई ? घर आए । माँ सामायिक स्वाध्याय में लीन थी । माता का सामायिक में स्पर्श नहीं कर सकते थे । दूर से ही माता के चरणों में मस्तक झुकाकर नमस्कार किया ।
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“माँ, तुम्हें क्या अच्छा नहीं लगा ? समग्र गाँव आया है और तुम क्यों नहीं आईं ?'
'मात्र हिंसा मे प्रवर्तित कुशास्त्र के परिशीलन रूप एवं परिणाम से दुर्गति में ले जाने वाली विद्याभ्यास कर आया है तो तेरी माँ को कैसे अच्छा लगेगा ?'
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