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ऋषभदेव प्रभु की साधना का सर्वोच्च परिणाम जीवा वैद्य के नवमें भव से शुरु हुआ। पुण्य यह शुभ कर्म है, मोह नहीं । क्रिया के दृढ़ सेवन से गुण आत्मसात होते हैं । धर्म आत्मा में जुड़ जाना चाहिए । ऋषभदेव प्रभु का जीव वज्र नाभ चक्रवर्ती रुप में जन्म लेता है, इस भव में आगे श्रेयांसकुमार का जीव सारथी बनता है । वज्रनाभ के पिता का जीव वज्रसेन तीर्थंकर का जीव है तथा इस प्रकार उनका जीव तीर्थंकर के पुत्र रुप में जन्मे हैं। ब्राह्मी एवं संदरी की आत्मा ने पीठ व महापीठमुनि के भव में थोड़ी भूल के कारण स्त्रीवेद का बंध किया।
यह समग्र विवेचन जीवन के अगम्य खास हिस्सों पर अति महत्व का प्रकाश डालता है। उत्तमोत्तम महापुरुषों के जीवन चरित्रों का इतिहास, संसारी जीवन में दोष रुप, गिनाते अशुभ भावों से संताकुकड़ी में रमण करता है । निमित्त जो शुभ मिले और उन्हें अत:करण से, श्रद्धामय शुभ भावनाओं से संवारें तो अधिक समय में भी एक-दूसरे के पूरक बनकर उभय के जीवन को प्रकाशित करते हैं। इसमें कोई संशय नहीं है। ऐसी घटनाओं को हंसदृष्टि से, क्षीर नीर के विवेक से विश्लेषण करने का कहा गया है।
असत्य का उपयोग सत्य के लिए होता ही नहीं है । बाह्य दीपक अंदर के भाव अंधकार को दूर करने के प्रतीक समान हैं । निमित्तों बाह्य दीपक के समान है । उभय के जीव को घातक होवे ऐसा अनुष्ठान आचरण भी सावधानी एवं समझ मांग लेता है। संसार की रीति ही ऐसी है । शुभ निमित्त संसार बढ़ाते हैं पश्चात् भी दीर्घकाल में एक दूसरे के गुणपोषक बनकर संसार घटाने में शक्तिमान बनते हैं।
शास्त्र का कथन है, अनेक जीव प्रारंभ में भावहीन क्रिया करते-करते भी अभ्यास से भाव पैदा होने पर अंत में भाववृद्धि से मोक्ष तक पहुंच गए । मोक्ष तो दूर है परंतु ध्येय को ध्यान की लगन में संसार को पुण्य के मार्ग पर एक-दूसरे के सान्निध्य की सुवास से संचारित रखे तो ज्ञानी कहते हैं - पुण्यमय शुभकर्म मोह नहीं । सान्निध्य की सुवास को अधिक सुवासित करते रहिए।
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