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पुण्य तो शुभ कर्म है, मोह नहीं
(धर्म तीर्थ : 2) श्रेयांसकुमार के जीव ने निर्नामिका के भव में केवली भगवंत द्वारा समकित प्राप्त किया। निर्नामिका का संसार अति दुःखमय था । सगी माँ भी उसे दुःख देती थी। समकित प्राप्ति के पश्चात् तत्वबुद्धि आई और सैंकड़ों दुःख वहीं के वहीं हल्के हो गए। विपरित परिस्थितियों में धर्म जो साहस, सत्व देता है वह निकट के स्वजन भी नहीं दे सकते।
इधर ऋषभदेव प्रभु की आत्मा ने धना सार्थवाह के भव में बोधीबीज प्राप्त कर चौथे महाबल राजा के भव में समकित प्राप्त किया। पांचवा भव ललितांग देव के रुप में हुआ। तब पटरानी स्वयंप्रभा देवी का च्यवन होने पर अति विरह हुआ। उन्हें समग्र देवलोक में स्वयंप्रभा देवी की भ्रमणा हआ करती है।
तीर्थंकर का जीव होने के पश्चात भी निमित्त मिलने पर कैसी असर होती है ? स्वयंप्रभा देवी के स्थान पर जन्म लेवें ऐसा पुण्य संचति करने वाला जीव कौन है ? उसे देखने पर परम देव मित्र के उपयोग से निर्नामिका दृष्टिगत हुई । ऋषभदेव के जीव ने नियाणा किया, निर्नामिका को चाहा और वह स्वयंप्रभा बनी। दोनों ने परस्पर स्नेह संबंध बांधा जो नौ भव तक चला । स्नेहराग बन गया। अनुकूल पात्र में प्रारंभ में कामराग होता है, सानुकुल सहवास बढ़ता है, कामराग स्नेहराग में परिवर्तित हो जाता है, जिसकी श्रृंखला भवोभव चलती है । गुण सम्पन्न जीव पर स्नेह बंधे तो जोखम कम रहता है।
कर्म का सिद्धांत है, अतिशय स्नेह हो तो उसका योग कराता है। भगवान ऋषभदेव की आत्मा ने दीर्घकाल तक श्रेयांसकुमार के साथ संबंध से जुड़े रहे । अनुराग के कारण दोनों का प्रत्येक भव में मिलन हुआ। परंतु दोनों योग्य जीव होने के कारण एक-दूसरे के अहित का कारण नहीं बने । अवसर आने पर हितपोषक बनते हैं। फिर भी प्रारंभिक भवों में रागादिवस काम-भोग की भी प्रवृत्ति थी, वह भी जैसे-जैसे आगे बढ़ने पर घटने लगी। भरत चक्रवर्ती, बाहुबली, ब्राह्मी, सुंदरी इन चारों के साथ भी पूर्व भव का संबंध है।
* तत्वबुद्धि : ममत्व से दूर 90®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®0 341999@G©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©