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इसी समय 'बलिचंचा' नामक की राजधानी ईन्द्र रहित थी। वहाँ के देवों ने अवधिज्ञान द्वारा तामली बाल तपस्वी को देखा । बलिचंचा के इन्द्र बनने हेतु स्वीकृति प्रदान करने की प्रार्थना की । तामली ने मना किया। तत्पश्चात् तामली ने साठ हजार वर्ष तक दीक्षा पाली, दो मास की संलेखना कर देवलोक गमन किया । ईशान कल्प में स्वयं ईशानेन्द्र रुप में उत्पन्न हुआ। बलिचंचा के देव-देवियों ने ज्ञान द्वारा देखा । तामली का देह जहाँ मृत्यु को प्राप्त हुआ था वहां उसकी खूब हिलना की । यह बात ईशान देवलोक के देव-देवी ने ज्ञान द्वारा जानी। तामली ईशानेन्द्र ने क्रोधायमान, लेश्या से बलिचंचा को जलाकर अंगारे जैसी कर दी।
बलिचंचा के देव-देवी ने क्षमा याचना की, ईशानेन्द्र ने लेश्या पुन: खींच ली । दो सागरोपम से अधिक का आयु पूर्ण कर, च्यवी, महाविदेह से सिद्ध बनेंगे।
महेश्वर दत्त एवं गांगीला महेश्वर दत्त : पत्नी गांगीला, ग्राम विजयपुर :पिता – धंधा रोजगार में व्यस्त । मेरा पुत्र, मेरी पत्नी, मेरा कुटुम्ब, मेरा व्यवहार । अंतिम समय आया । महेश्वर दत्त ने अंतिम ईच्छा पूछी, भैंसों की सार संभाल, श्राद्ध के दिन भैंस की बलि ? स्वयं भी मरकर भैंस बना, उसकी भैंस के ही पेट से जन्मा।
माता - मेरा घर, मेरा व्यवहार, मेरी मिल्कियत-जेवर । मृत्यु के बाद कुत्ती' रुप जन्म हुआ।
पत्नी गांगीला - खूब रूपवान परंतु विषयों में लिप्त । एक दिन पर पुरुष के साथ पकड़ी गई। महेश्वर दत्त ने उस पुरुष को चाबुक से मारा और मर गया । वह पुरुष समतावान था। क्रोध नहीं किया और मरकर गांगीला की कुक्षि से पुत्ररूप में जन्मा।
संसार की विचित्रता देखो, पिता पुत्र एवं माता पत्नी।
श्राद्ध के दिन आए । पाड़ा (भैंस) मिला नहीं, घर के पाड़े का ही बलिदान । बलिदान के समय कुत्ती बर्तन चाट रही थी। महेश्वर दत्त ने लकड़ी से चोट मारी । कुत्ती की कमर तोड़
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