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करता है। गलत को गलत तरीके से, सत्य को सत्य के हिसाब से जानना वह 'ज्ञान विवेक' मानना और अपनाना वह 'दर्शन विवेक', गलत को गलत मानकर त्याग कर दो । सत्य को सत्य मानकर जीवन में आचरण करना वह 'चारित्र विवेक' है ।
ऐसा विवेक 'आप्त अरिहंत' के उपदेश द्वारा ही प्रकट हो सकता है । आगम ही आप्त वचन है और उनके द्वारा प्रकट होता है ।
तामली तापस एवं 'प्राणमां' दीक्षा
(भगवती सूत्र सार संग्रह भाग
1 में से)
गौतम स्वामी गणधर भगवंत ने, प्रभु महावीर से 'इशानेन्द्र' की उत्पत्ति संबंधी किए प्रश्नों का खुलासा करने हेतु पूछा था, उसका सार यह है ।
ताम्रलिप्ति नगरी, तामली नामक मौर्यपुत्र गृहपति अत्यन्त धनाढ्य था । समृद्धि बढ़ती गई, फिर वैराग्य हुआ । स्वजन-संबंधी, जाति वाले सभी ने अनेक पदार्थों से सत्कारसन्मान कर, स्वयं के वरिष्ठ पुत्र को कुटुंब का भार सौंपकर उन्होंने 'प्राणमा' नामक दीक्षा ग्रहण की।
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दीक्षा के साथ ही आजीवन तक छठ - छठ की तपस्या का अभिग्रह किया । हाथ ऊँचे रख, सूर्य की ओर देख खड़े रहकर आतापना लेते हैं । ऊँच-नीच म T - मध्यम कुल में से भिक्षा लेते हैं । पारणे के दिन ऐसा अभिग्रह किया कि, “दाल, सब्जी, बिना चावल भिक्षा में लेना । भिक्षा में लाए चावल को पानी द्वारा इक्कीस बार धोकर खाना और पारणा करना ।
इस दीक्षा को प्राणमा दीक्षा कहने का कारण यही है कि वह व्यक्ति जिस को देखे उसे अर्थात् ईन्द्र, स्कंदक, रुद्र, शिव, कुबेर, पार्वती, चंडिका, राजा, सार्थवाह, कौआ, श्वान, चांडाल आदि सभी को प्रणाम करे । निम्न को निम्न स्तर से और उच्च को उच्च स्तर से प्रणाम करे ।
तामली तापस ने घोर तपस्या की, शरीर को सूखा दिया । उसके बाद सर्व उपकरणों चाखंडी, कुंडी आदि दूर कर, ईशान कोने में आहार- पानी का त्याग कर 'पादोपगमन' नामक अनशन किया ।
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