________________
©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©G सभी पर्यायों की आत्मा, खेल-खेल में सर्जन कर सकते हैं । यही आत्मा की अनंत शक्ति का आभास कराते हैं।
मोक्ष में विशिष्ट पुण्ययुक्त तीर्थंकर केवली और पुण्यरहित कुर्मापुत्र । (जिनका ठिगना कद, कुरूप शरीर था और 6 माह तक केवली होने पर भी किसी मालूम नहीं पड़ी।) ऐसे असमानता एकदम नष्ट हो जाती है । कोई ऊँच-नींच नहीं रहती।
अमूर्तता :- मूर्तता उसको होती है जिनके सभी संवेदन पुद्गल आधारित होते है, संसारी जीव प्रतिघाती मूर्तता लिये होते हैं । आकाश अमूर्त है -पानी या कीचड़ से निर्लेप रहता है । आत्मा अमूर्त-होने से एक स्थान पर अनंत आत्माओं के साथ रह सकती है । एक दीपक या 1000 दीपक सभी का प्रकाश जैसा होता है वैसा ही होता है । अरुपी स्वरुप नाम कर्म के क्षय होने पर प्राप्त होता है।
अजरामरता :- तीर्थंकर और इन्द्र सभी अशाश्वत हैं, अनित्य हैं । अजर और अमर सिद्ध आत्माएँ ही हैं। आयु कर्म के क्षय से यह गुण प्रकट होता है।
अव्याबाधता :- वेदनीय कर्म के क्षय से आत्मा का अव्यबाध पीड़ा रहित सुख प्रकट होता है । इस सुख से आत्मा कभी बोर नहीं होती । इन्द्रियों के सुख बासी हो जाते हैं । नित्य नूतनता की चाह रहती है । सिद्ध जीवों के ज्ञान और दर्शन पुद्गल के सच्चे हैं, परन्तु वेदन बिल्कुल नहीं । इसलिए सम्पूर्ण सुख अनुभवित होता है।
भौतिक सुख वस्तु से नहीं, वस्तु के गुणधर्म से नहीं, परन्तु गुणों के संवेदन से है । सम्यक्त्व प्राप्त जीव के पास ऐसा अपूर्व विज्ञान है वैसा जगत में अन्य किसी के पास नहीं। इसी से उसको अपूर्व प्राप्ति का आनंद है।
सम्यग्दृष्टि जीव को भाव शुद्धि के कारण उसकी सभी क्रियाएँ अनंतगुणी विशेष फलदायी होती है।
* पहले गुण स्थानक की प्रधान द्रव्य क्रिया के 4 लक्षण :1. अपूर्व प्राप्ति का आनंद, 2. क्रिया मार्ग में सूक्ष्म आलोचन
७०७७०७0000000000031650090050505050505050605060