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________________ GOOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOG@GOGOG@GOGOGOGOGOGOG 3. भव का तीव्र भय, 4. विधि का तात्विक बहुमान। संसार की प्रत्येक प्रवृत्तियों में श्रम लेने का आता ही है, संसार अर्थात् संघर्षमय जीवन । यहां शक्तिशाली होने के लिए कसरत करनी पड़ती है । मोक्ष में बिना एक्सरसाईज के अनंत बल है । पुद्गल के बिना भोगे सुख कहाँ ? ये ग्रंथी वहां टूट जाती है । जीव बोधि बीज प्राप्त करता है। तब से क्रमश: मार्गाभिमुख हो जाता है । मिथ्यात्व की गांठ पर वज्र प्रहार होता है। प्रथम गुणस्थानक यह भी आत्मा का प्रबल पुरुषार्थ है, उसमें पुद्गल और आत्मा संबंधी अति भारी परिवर्तन प्रारम्भ हो जाता है। साधना समय में जो कष्ट (परिषह-उपसर्ग) गुण की पुष्टि करते हैं वे ही सहन करना चाहते हैं । पुद्गल के सुख प्राप्त करने की लालसा ही अत्यधिक तकलीफ पहुंचाती है । नुकसानदायक है। कर्मजन्य सुख की नहीं। विकृति, मन के परिणाम से आती है, उसको समूल नष्ट करना है और परम शुद्ध भाव भी मन के परिणामों से प्रकट होते है । इस प्रकार मन, कर्मबंध और मोक्ष दोनों का कारण है। क्रिया परिणाम सिद्ध करने का साधन है । क्रिया बिना जरुरी नहीं । मोक्ष मार्ग में आंतरिक परिणाम का ही केन्द्र स्थान है । इसलिए क्रियावाद को शुद्ध परिणामवाद के साथ संकलित कर आचरण करना है। अधिगम से सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले जीव संख्यात गुना हैं। निसर्ग से सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले जीव अरबों-खरबों में एक होता है। * गुणों का अद्वेष यानि ? - चरमावर्त काल * उससे तात्विक वैराग्य प्रकट होता है - अपुनर्वधक, योग की प्रथम भूमिका मुक्ति का अद्वेष आता है अर्थात् प्रथम गुण स्थानक में जीव का तात्विक प्रवेश। * मुक्ति की तात्विक जिज्ञासा - चरम यथा प्रवृत्तिकरण * मुक्ति की तात्विक इच्छा प्रकट हो - बोधि बीज की प्राप्ति प्रथम योग दृष्टि । 90GOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGO90 317 GOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGO
SR No.007276
Book TitleShrut Bhini Ankho Me Bijli Chamke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Doshi
PublisherVijay Doshi
Publication Year2017
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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